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कहान जैन शास्त्रमाला]
अजीव-अधिकार
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खंडान्वय सहित अर्थ:- 'अस्मिन् अविवेकनाट्ये पुद्गलः एव नटति'' [अस्मिन् ] अनंत कालसे विद्यमान ऐसा जो [अविवेक] जीव-अजीवकी एकत्वबुद्धिरूप मिथ्या संस्कार उसरूप है [नाट्ये] धारासंतानरूप वारम्वार विभाव परिणाम उसमें [पुद्गलः ] पुद्गल अर्थात् अचेतन मूर्तिमान द्रव्य [ एव] निश्चयसे [ नटति] अनादि कालसे नाचता है। "न अन्यः'' चेतनद्रव्य नहीं नाचता है।
भावार्थ इस प्रकार है -चेतनद्रव्य और अचेतनद्रव्य अनादि हैं, अपना-अपना स्वरूप लिये हुए है, परस्पर भिन्न हैं ऐसा अनुभव प्रगटरूपसे सुगम है। जिसको एकत्वसंस्काररूप अनुभव है वह अचम्भा है। ऐसा क्यों अनुभवता है ? क्योंकि एक चेतनद्रव्य, एक अचेतनद्रव्य ऐसा अन्तर तो घना। अथवा अचम्भा भी नहीं, क्योंकि अशुद्धपना के कारण बुद्धिको भ्रम होता है। जिस प्रकार धतूरा पीनेसे दृष्टि विचलित होती है, श्वेत शंखको पीला देखेती है, सो वस्तु विचारनेपर ऐसी दृष्टि सहजकी तो नहीं, दृष्टिदोष है। दृष्टिदोषको धतूरा उपाधि भी है उसी प्रकार जीवद्रव्य अनादिसे कर्मसंयोगरूप मिला ही चला आरहा है, मिला होनेसे विभावरूप अशुद्धपनेसे परिणत हो रहा है। अशुद्धपनेके कारण ज्ञानदृष्टि अशुद्ध है, उस अशुद्ध दृष्टि के द्वारा चेतन द्रव्यको पुद्गल कर्मके साथ एकत्व संस्काररूप अनुभवता है। ऐसा संस्कार तो विद्यमान है। सो वस्तुस्वरूप विचारनेपर ऐसी अशुद्ध दृष्टि सहजकी तो नहीं, अशुद्ध है, दृष्टिदोष है। और दृष्टिदोषको पुद्गल पिंडरूप मिथ्यात्वकर्मका उदय उपाधि है। आगे जिस प्रकार दृष्टिदोषसे श्वेत शंखको पीला अनुभवता है तो फिर दृष्टिमें दोष है, शंख तो श्वेत ही है, पीला देखनेपर शंख तो पीला हुआ नहीं है उसी प्रकार मिथ्या दृष्टिसे चेतनवस्तु और अचेतनवस्तुको एक कर अनुभवता है तो फिर दृष्टिका दोष है, वस्तु जैसी भिन्न है वैसी ही है। एक कर अनुभवनेपर एक नहीं हुई है, क्योंकि घना अन्तर है।
कैसा है अविवेकनाट्य ? ' 'अनादिनि'' अनादिसे एकत्व-संस्कारबुद्धि चली आई है ऐसा है। और कैसा है अविवेकनाट्य ? ' 'महति'' जिसमें थोड़ासा विपरीतपना नहीं है, घना विपरीतपना है। कैसा है पुद्गल ? "वर्णादिमान्'' स्पर्श, रस, गंध, वर्णगुणसे संयुक्त है। ''च अयं जीव: रागादिपुद्गलविकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूर्तिः'' [च अयं जीवः] और यह जीव वस्तु ऐसी है[ रागादि] राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ ऐसे असंख्यात लोकमात्र अशुद्धरूप जीवके परिणाम-[पुद्गलविकार] अनादि बंध पर्यायसे विभाव परिणाम-उनसे [विरुद्ध ] रहित है ऐसी [ शुद्ध ]निर्विकार है ऐसी [ चैतन्यधातु] शुद्ध चिद्रूप वस्तु [मय ] उसरूप है [ मूर्तिः ] सर्वस्व जिसका ऐसी है।
भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार पानी कीचड़के मिलनेपर मैला है।सो वह मैलापन रंग है, सो रंगको अंगीकार न कर बाकी जो कुछ है सो पानी ही है। उसी प्रकार जीवकी कर्मबंध पर्यायरूप अवस्थामें रागादि भाव रंग है, सो रंगको अंगीकार न कर बाकी जो कुछ है सो चेतनधातुमात्र वस्तु है। इसी का नाम शुद्धस्वरूप- अनुभव जानना जो सम्यग्दृष्टि के होता है।। १२-४४।।
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