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कहान जैन शास्त्रमाला]
अजीव-अधिकार
३७
खंडान्वय सहित अर्थ:- "आत्मा आत्मनि इमम् आत्मानम् कलयतु'' [आत्मा] जीवद्रव्य [आत्मनि] अपनेमें [इमम् आत्मानम् ] अपनेको [ कलयतु] निरंतर अनुभवो। कैसा है अनुभवयोग्य आत्मा ? "विश्वस्य साक्षात् उपरि चरन्तं'' [ विश्वस्य] समस्त त्रैलोक्यमें [ उपरि चरन्तं] सर्वोत्कृष्ट है, उपादेय है। [ साक्षात् ] ऐसा ही है।, बड़ाई करके नहीं कह रहे हैं। और कैसा है ? ''चारु'' सुखस्वरूप है। और कैसा है ? "परम्'' शुद्धस्वरूप है। और कैसा है ? "अनन्तम्'' शाश्वत है। अब जैसे अनुभव होता है वही कहते हैं- "चिच्छशक्तिरिक्तं सकलम् अपि अहाय विहाय'' [ चित्शक्तिरिक्तं ] ज्ञानगुणसे शून्य ऐसे [ सकलम् अपि] समस्त द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्मको [ अहाय] मूलसे [ विहाय] छोड़कर। भावार्थ इस प्रकार है कि जितनी कुछ कर्मजाति है वह समस्त हेय है, उसमें कोई कर्म उपादेय नहीं है। और अनुभव जैसे होता है वही कहते हैं- "चिच्छशक्तिमात्रम् स्वं च स्फुटतरम् अवगाह्य' [चित्-शक्तिमात्रम् ] ज्ञानगुण ही है स्वरूप जिसका ऐसे [स्वं च] अपनेको [ स्फुटतरम् ] प्रत्यक्षरूपसे [ अवगाह्य ] आस्वादकर। भावार्थ इस प्रकार है कि जितने भी विभावपरिणाम हैं वे सब जीवके नहीं हैं। शुद्ध चैतन्यमात्र जीव है ऐसा अनुभव कर्तव्य है।। ४-३६ ।।
[शालिनी] वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः। तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात्।।५-३७।।
[ दोहा] वर्णादिक रागादि सब हैं आतम से भिन्न। अन्तर्दृष्टि देखिये दिखे एक चैतन्य।।३७।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "अस्य पुंसः सर्वे एव भावाः भिन्नाः'' [ अस्य] विद्यमान है ऐसे [पुंसः] शुद्ध चैतन्य द्रव्यसे [ सर्वे] जितने हैं वे सब [ भावाः] भाव अर्थात् अशुद्ध विभाव परिणाम [ एव] निश्चयसे [ भिन्नाः] भिन्न हैं- जीवस्वरूपसे निराले हैं। वे कौनसे भाव ? 'वर्णाद्याः वा रागमोहादयः वा'' [वर्णाद्याः] एक कर्म अचेतन शुद्ध पुद्गलपिंडरूप हैं वे तो जीवस्वरूपसे निराले ही हैं। [वा] एक तो ऐसा है कि [ रागमोहादयः] विभावरूप-अशुद्धरूप है, देखनेपर चेतन जैसे दीखते हैं, ऐसे जो राग-द्वेष-मोहरूप जीवसंबंधी परिणाम वे भी शुद्ध जीवस्वरूपको अनुभवनेपर जीवस्वरूपसे भिन्न हैं। यहाँ पर कोई प्रश्न करता है कि विभावपरिणामको जीवस्वरूपसे ‘भिन्न' कहा सो ‘भिन्न'का भावार्थ तो मैं समझा नहीं। ‘भिन्न' कहनेपर, ‘भिन्न' हैं। सो वस्तुरूप हैं कि 'भिन्न' हैं सो अवस्तुरूप हैं ? उत्तर इस प्रकार है कि अवस्तुरूप हैं। "तेन एव अन्तस्तत्त्वतः पश्यतः अमी दृष्टाः नो स्युः' [ तेन एव ] उसी कारणसे [अन्तःतत्त्वतः पश्यतः] शुद्ध स्वरूपका अनुभवशील है जो जीव उसको [ अमी] विभाव परिणाम [ दृष्टाः ] दृष्टिगोचर [ नो स्युः ] नहीं होते ।
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