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कहान जैन शास्त्रमाला ]
जीव-अधिकार
[ वसन्ततिलका ]
मज्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः। आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीं भरेण प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः ।। ३२ ।।
[ हरिगीत ]
सुख शान्त रस से लबालब यह ज्ञानसागर आतमा। विभरम की चादर हटा सर्वांग परगट आतमा ।। हे भव्यजन ! इस लोक के सब एक साथ नहाइये । अर इसे ही अपनाइये इसमे मगन हो जाइये ।। ३२ ।।
३३
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खंडान्वय सहित अर्थ:- 'एष भगवान् प्रोन्मग्न: ' [ एष ] सदा काल प्रत्यक्षपनेसे चेतनस्वरूप है ऐसा[ भगवान् ] भगवान अर्थात् जीवद्रव्य [ प्रोन्मग्न: ] शुद्धांगस्वरूप दिखलाकर प्रगट हुआ।
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भावार्थ इस प्रकार है कि इस ग्रंथका नाम नाटक अर्थात् अखाड़ा है। तहाँ भी प्रथम ही शुद्धाङ्ग नाचता है तथा यहाँ भी प्रथम ही जीवका शुद्ध स्वरूप प्रगट हुआ। कैसा है भगवान ? ' अवबोधसिन्धु: '' [ अवबोध ] ज्ञानमात्रका [ सिन्धुः ] पात्र है। अखाड़ामें भी पात्र नाचता है, यहाँ भी ज्ञानपात्र जीव है। अब जिस प्रकार प्रगट हुआ उसे कहते हैं- ' ' भरेण विभ्रमतिरस्करिणीं आप्लाव्य'' [भरेण ] मूलसे उखाड़कर दूर किया। सो कौन ? [ विभ्रम ] विपरीत अनुभवमिथ्यात्वरूप परिणाम वही है [ तिरस्करिणीं ] शुद्धस्वरूपको आच्छादनशील अन्तर्जवनिका [ अंदरका पड़दा] उसको, [आप्लाव्य ] मूलसे ही दूर करके । भावार्थ इस प्रकार है कि अखाड़ेमें प्रथम ही अन्तर्जवनिका कपड़े की होती । उसे दूर कर शुद्धाङ्ग नाचता है, यहाँ भी अनादि कालसे मिथ्यात्व परिणति है। उसके छूटनेपर शुद्धस्वरूप परिणमता है। शुद्धस्वरूप प्रगट होनेपर जो कुछ है वही कहते हैं— ‘— अमी समस्ताः लोकाः शान्तरसे समम् एव मज्जन्तु'' [ अमी] जो विद्यमान हैं ऐसे [ समस्ताः ] जितने [ लोका: ] जीव [ शान्तरसे ] जो अतीन्द्रिय सुख गर्भित है शुद्धस्वरूपका अनुभव उसमें [ समम् एव ] एक ही काल [ मज्जन्तु ] मग्न होओ- तन्मय होओ। भावार्थ इस प्रकार है कि अखाड़े में तो शुद्धाङ्ग दिखाता है । वहाँ जितने देखने वाले हैं वे सब एकही साथ मग्न होकर देखते हैं उसी प्रकार जीवका स्वरूप शुद्धरूप दिखलाया होनेपर सर्व ही जीवोंके द्वारा अनुभव करने योग्य है । कैसा है शान्तरस ? 'आलोकमुच्छलति" [आलोकम् ] समस्त त्रैलोक्यमें [ उच्छलति ] सर्वोत्कृष्ट है, उपादेय है अथवा लोकालोकका ज्ञाता है। अब अनुभव जिस प्रकार है उस प्रकार कहते हैं ।‘‘निर्भरम्' अति मग्नस्वरूप है ।। ३२ ।।
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