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[ भगवान्
समयसार - कलश
कुन्दकुन्द -
और कैसा हैं?'' समुद्रम् इव अक्षोभम्'' [ समुद्रम् इव ] समुद्रके समान [ अक्षोभम् ] निश्चल है । और कैसा हैं ? परं '' उत्कृष्ट है। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार वायुके बिना समुद्र निश्चल होता है वैसे ही` तीर्थंकरका शरीर भी निश्चल है। इस प्रकार शरीरकी स्तुति करनेपर आत्माकी स्तुति नहीं होती है, क्योंकि शरीरके गुण आत्मामें नहीं हैं। आत्माका ज्ञानगुण है; ज्ञानगुणकी स्तुति करनेपर आत्माकी स्तुति होती है ।। २६ ।।
[ शार्दूलविक्रीडित ]
एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोर्निश्चयात् नुः स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः। स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवेत् नातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्माङ्गयोः ।। २७।।
[ हरिगीत ]
इस आतमा अर देह का एकत्व बस व्यवहार से । यह शरीराआश्रित स्तवन भी इसलिए व्यवहार है ।। परमार्थ से स्तवन है चिद्भाव का ही अनुभवन। परमार्थसे तो भिन्न ही हैं देह अर चैतन्य घन ॥२७॥
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खंडान्वय सहित अर्थ:- 'अतः तीर्थकरस्तवोत्तरबलात् आत्माङ्गयोः एकत्वं न भवेत् '' [अतः ] इस कारण से, [ तीर्थकरस्तव ] 'परमेश्वरके शरीरकी स्तुति करनेपर आत्माकी स्तुति होती है ऐसा जो मिथ्यामती जीव कहता है उसके प्रति [ उत्तरबलात् ] 'शरीरकी स्तुति करनेपर आत्माकी स्तुति नहीं होती, आत्माके ज्ञानगुणकी स्तुति करनेपर आत्माकी स्तुति होती है।' इस प्रकार उत्तरके बलसे अर्थात् उस उत्तरके द्वारा संदेह नष्ट हो जानेसे, [ आत्मा ] चेतनवस्तुको और [ अङ्गयोः ] समस्त कर्मकी उपाधिको [ एकत्वं ] एकद्रव्यपना [ न भवेत् ] नहीं होता है। आत्माक स्तुति जिस प्रकार होती है उसे कहते हैं- 'सा एवं " [ सा ] वह जीवस्तुति [ एवं ] मिथ्यादृष्टि जिस प्रकार कहता था उस प्रकार नहीं है। किन्तु जिस प्रकार अब कहते हैं उस प्रकार ही है ' कायात्मनोः व्यवहारतः एकत्वं, तु न निश्चयात् '' [ कायात्मनो: ] शरीरादि अने चेतनद्रव्य इन दोनोंको [ व्यवहारत: ] कथनमात्रसे [ एकत्वं ] एकपना है। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार सुवर्ण और और चाँदी इन दोनोंको ओटकर एक रैनी' बना लेते हैं सो उन सबको कहनेमें तो सुवर्ण ही कहते हैं उसी प्रकार जीव और कर्म अनादिसे एकक्षेत्र संबंधरूप मिले चले आरहे हैं, इसलिये उन सबको कथनमें तो जीव ही कहते हैं । [तु ] दूसरे पक्षसे [न] जीव- कर्मको एकपना नहीं है। सो किस पक्षसे ? [ निश्चयात् ] द्रव्यके निज स्वरूपको विचारनेपर । भावार्थ इस प्रकार है कि सुवर्ण और चाँदी यद्यपि एक क्षेत्रमें मिले हैं- एकपिंडरूप हैं । तथापि सुवर्ण पीला, भारी और चिकना ऐसे अपने गुणोंको लिए हुए है, चाँदी भी अपने श्वेतगुण को लिए हुए है। इसलिये एकपना कहना झूठा है,
१ रैनी = चाँदी या सोनेकी वह गुल्ली जो तार खींचनेके लिये बनाई जाती है।
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