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कहान जैन शास्त्रमाला ]
[ आर्या ]
प्राकारकवलिताम्बरमुपवनराजीनिगीर्णभूमितलम् । पिबतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालम् ।। २५।।
जीव-अधिकार
[ हरिगीत ]
प्राकार से कवलित किया जिस नगर ने आकाश को ।
अर गोल गहरी खाई से है पी लिया सब भूमितल को ग्रस लिया उपवनों के अद्भुत अनूपम अलग ही है वह नगर खंडान्वय सहित अर्थ:- " इदं नगरम् परिखावलयेन पातालम् पिबति इव [ नगरम् ] राजग्राम [ परिखावलयेन ] खाई के द्वारा घिरा होनेसे [ पातालम् ] अधोलोकको [पिबति इव] खाई इतनी गहरी है जिससे मालुम पड़ता है कि पी रहा है। कैसा है नगर ? — प्राकारकवलिताम्बरम् ' [ प्राकार ] कोटके द्वारा [ कवलित ] निगल लिया है [ अम्बरम् ] आकाशको जिसने ऐसा नगर है ।
[ इदं ] प्रत्यक्ष
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पाताल को ।। सौन्दर्य से ।
संसार से ।। २५ ।।
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भावार्थ इस प्रकार है कोट अति ही ऊँचा है। और कैसा है नगर ? — उपवनराजीनिगीर्णभूमितलम्' [ उपवनराजी ] नगरके समीप चारों ओर फैले हुए बागसे [ निगीर्ण ] रुँधी है [ भूमितलम् ] समस्त भूमि जिसकी ऐसा वह नगर है । भावार्थ इस प्रकार है कि नगरके बाहर घने बाग हैं। ऐसी नगरकी स्तुति करनेपर राजा की स्तुति नहीं होती है । यहाँपर खाई - कोट- बागका वर्णन किया सो तो राजाके गुण नहीं हैं। राजाके गुण हैं दान, पौरुष जानपना; उनकी स्तुति करनेपर राजा की स्तुति होती है ।। २५ ।।
[ आर्या ]
नित्यमविकारसुस्थितसर्वाङ्गमपूर्वसहजलावण्यम् । अङ्गोभमिव समुद्रं जिनेन्द्ररूपं परं जयति ।। २६ ।।
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२५
[ हरिगीत ] गंभीर सागर के समान महान मानस मंग हैं । नित्य निर्मल निर्विकारी सुव्यवस्थित अंग हैं । सहज ही अद्भुत अनूपम अपूरब लावण्य है। क्षोभ विरहित अर अचल जयवंत जिनवर अंग है ।। २६ ।।
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खंडान्वय सहित अर्थ:- 'जिनेन्द्ररूपं जयति'' [ जिनेन्द्ररूपं] तीर्थंकरके शरीरकी शोभा [ जयति ] जयवंत हो। कैसा है जिनेन्द्ररूप ? नित्यं " आयुपर्यन्त एकरूप है। और कैसा हैं ? 'अविकारसुस्थितसर्वाङ्गम्" [ अविकार ] जिसमें बालपन, युवापन, और बूढ़ापन न होनेसे
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[ सुस्थित ] समाधानरूप हैं [ सर्वाङ्गम् ] सर्व प्रदेश जिसके ऐसा है । और कैसा हैं जिनेन्द्रका रूप ? ‘अपूर्वसहजलावण्यम्'' [अपूर्व ] आश्चर्यकारी तथा [ सहज ] विना यत्नके शरीरके साथ मिले हैं [ लावण्यम् ] शरीरके गुण जिसे ऐसा है ।
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