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कहान जैन शास्त्रमाला]
जीव-अधिकार
१७
[अनुष्टुप] दर्शन-ज्ञान-चारित्रैस्त्रित्वादेकत्वतः स्वयम। मेचकोऽमेचकश्चापि सममात्मा प्रमाणतः।। १६ ।।
[हरिगीत] मेचक कहा है आतमा दृग ज्ञान अर आचरण से। यह एक निज परमातमा बस है अमेचक स्वयं से।। परमाण से मेचक-अमेचक एक ही क्षण में अहा। यह अलोकिक मर्मभेदी वाक्य जिनवर ने कहा।।१६।।
खंडान्वय सहित अर्थः- “आत्मा मेचकः'' [ आत्मा] चेतन द्रव्य [ मेचक:] मलिन है। किसकी अपेक्षा मलिन है ? ' 'दर्शन-ज्ञान-चारित्रैस्त्रित्वात्'' सामान्यरूपसे अर्थग्राहक शक्तिका नाम दर्शन है, विशेषरूपसे अर्थग्राहक शक्तिका नाम ज्ञान है और शुद्धत्वशक्तिका नाम चारित्र है। इस प्रकार शक्तिभेद करनेपर एक जीव तीन प्रकार होता है। इससे मलिन कहनेका व्यवहार है। "आत्मा अमेचक:'' [आत्मा] चेतनद्रव्य [अमेचक:] निर्मल है। किसकी अपेक्षा निर्मल है ? "स्वयम् एकत्वतः'' [स्वयम्] द्रव्यका सहज [ एकत्वतः] निर्भेदपना होनेसे , ऐसा निश्चयनय कहा जाता है। "आत्मा प्रमाणतः समम् मेचक: अमेचकोऽपि च'' [आत्मा] चेतनद्रव्य [ समम्] एक ही काल [ मेचक: अमेचकोऽपि च] मलिन भी है और निर्मल भी है। किसकी अपेक्षा ? [प्रमाणतः] युगपत् अनेक धर्मग्राहक ज्ञानकी अपेक्षा। इसलिए प्रमाणदृष्टिसे देखनेपर एक ही काल जीवद्रव्य भेदरूप भी है, अभेदरूप भी है।। १६ ।।
[अनुष्टुप] दर्शन-ज्ञान-चारित्रैस्त्रिभिः परिणतत्वतः। एकोऽपि त्रिस्वभावत्वाव्यवहारेण मेचकः।।१७।।
[हरिगीत आतमा है एक यद्यपि किन्तु नयव्यवहार से । त्रैरूपता धारण करे सदज्ञानदर्शनचरण से।। बस इसलिए मेचक कहा है आतमा जिनमार्ग में। अर इसे जाने बिन जगतजन ना लगे सन्मार्ग में।।१७।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "एकोऽपि व्यवहारेण मेचक:'' [ एकोऽपि] द्रव्यदृष्टिसे यद्यपि जीवद्रव्य शुद्ध है तो भी [ व्यवहारेण ] गुण-गुणीरूप भेददृष्टि से [ मेचक: ] मलिन है। सो भी किसकी अपेक्षा ? ' ' त्रिस्वभावत्वात्'' [त्रि] दर्शन-ज्ञान-चारित्र, ये तीन हैं [ स्वभावत्वात्] सहज गुण जिसके, ऐसा होनेसे । वह भी कैसा होनेसे ? "दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः त्रिभिः परिणतत्वतः'' क्योंकि वह दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीन गुणरूप परिणमता है, इसलिए भेदबुद्धि भी घटित होती है।। १७ ।।
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