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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
भावार्थ इस प्रकार है कि जीववस्तु असंख्यातप्रदेशी है, ज्ञानगुण सब प्रदेशोंमें एक समान परिणम रहा है। कोई प्रदेशमें घट-बढ़ नहीं है। और कैसा है ? ''सहज'' स्वयंसिद्ध है। और कैसा है ? ''उद्विलासं'' अपने गुण-पर्यायसे धाराप्रवाहरूप परिणमता है। और कैसा है ? "यत् [ मह:] सकलकालम् एकरसम् आलम्बते'' [यत्] जो [ मह:] ज्ञानपुंज [ सकलकालम्] त्रिकाल ही [ एकरसम्] चेतनास्वरूपको [आलम्बते] आधारभूत है। कैसा है एकरस ? ''चिदुच्छलननिर्भरं'' [ चित्] ज्ञान [ उच्छलन] परिणमन उससे [ निर्भरं] भरितावस्थ है। और कैसा है एकरस ? ' लवणखिल्यलीलायितम्'' [ लवण] क्षाररसकी [खिल्य] काँकरीकी [ लीलायितम् ] परिणति के समान जिसका स्वभाव है। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार नमक की काँकरी सर्वांङ्ग ही क्षार है उसी प्रकार चेतनद्रव्य सर्वांङ्ग ही चेतन है।।१४ ।।
[अनुष्टुप] एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः । साध्य-साधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम्।।१५।।
[हरिगीत] है कामना यदि सिद्धि की ना चित्त को भरमाइये। यह ज्ञान का घनपिण्ड चिन्मय अतमा अपनाइये।। बस साध्य-साधक भाव से इस एक को ही ध्याइये। अर आप भी पर्याय में परमातमा बन जाइये।।१५।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "सिद्धिमभीप्सुभिः एष: आत्मा नित्यम् समुपास्यताम्'' [सिद्धिम्] सकल कर्मक्षयलक्षण मोक्षको [अभीप्सुभि:] उपादेयरूपसे अनुभव करनेवाले जीवोंको [ एष: आत्मा] उपादेय ऐसा अपना शुद्ध चैतन्यद्रव्य [ नित्यम् ] सदा काल [ समुपास्यताम्] अनुभवना। कैसा है आत्मा ? ''ज्ञानघनः'' [ज्ञान] स्व-परग्राहक शक्तिका [घन:] पुञ्ज है। और कैसा है ? "एक:'" समस्त विकल्प रहित है। और कैसा है ? 'साध्य-साधकभावेन द्विधा'' [साध्य] सकल कर्मक्षयलक्षण मोक्ष [ साधक] मोक्षका कारण शुद्धोपयोगलक्षण शुद्धात्मानुभव [भावेन] ऐसी जो दो अवस्था उनके भेदसे [ द्विधा] दो प्रकारका है। भावार्थ इस प्रकार है कि एक ही जीवद्रव्य कारणरूप भी अपनेमें ही परिणमता है और कार्यरूप भी अपनेमें ही परिणमता है। इस कारण मोक्ष जानेमें किसी द्रव्यान्तरका सहारा नहीं है, इसलिए शुद्ध आत्माका अनुभव करना चाहिए।। १५ ।।
* पं श्री राजमल्लजीकी टीकामें यहाँ "अनन्तम्"पदका अर्थ करना रह गया है।
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