SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] जीव-अधिकार 'कलाप'का अर्थ समूह है। इसलिए ऐसा अर्थ निष्पन्न हुआ कि जैसे एक ही सोना वानभेदसे अनेकरूप कहा जाता है वैसे एक ही जीववस्तु द्रव्य-गुण-पर्यायरूपसे अथवा उत्पाद-व्ययध्रौव्यरूपसे अनेकरूप कही जाती है। 'अथ' अब 'अथ' पद द्वारा पुन: दूसरा पक्ष दिखलाते हैं:''प्रतिपदम् एकरूपं" [प्रतिपदम्] गुण-पर्यायरूप, अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप अथवा दृष्टांतकी अपेक्षा वानभेदरूप जितने भेद हैं उन सब भेदोमें भी [ एकरूपं] आप [ एक] ही है। वस्तुका विचार करनेपर भेदरूप भी वस्तु ही है, वस्तुसे भिन्न भेद कुछ वस्तु नहीं है। भावार्थ इस प्रकार है कि सुवर्णमात्र न देखा जाय, वानभेदमात्र देखा जाय तो वानभेद है; सुवर्णकी शक्ति ऐसी भी है। जो वानभेद न देखा जाय, केवल सुवर्णमात्र देखा जाय, तो वानभेद झूठा है। इसी प्रकार जो शुद्ध जीववस्तुमात्र न देखी जाय, गुण-पर्यायमात्र या उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमात्र देखा जाय तो गुण-पर्याय हैं तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य हैं; जीववस्तु ऐसी भी है। जो गुण-पर्यायभेद या उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यभेद न देखा जाय, वस्तुमात्र देखी जाय तो समस्त भेद झूठा है। ऐसा अनुभव सम्यक्त्व है। और कैसी है आत्मज्योति ? ' "उन्नीयमानं'' चेतनालक्षणसे जानी जाती है, इसलिए अनुमानगोचर भी है। अब दूसरा पक्ष-''उद्योतमानम्' प्रत्यक्ष ज्ञानगोचर है। भावार्थ इस प्रकार है - जो भेदबुद्धि करते हुए जीववस्तु चेतनालक्षणसे जीवको जानती है; वस्तु विचारनेपर इतना विकल्प भी झूठा है, शुद्ध वस्तुमात्र है। ऐसा अनुभव सम्यक्त्व है।। ८।। [मालिनी] उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम्। किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मिन् अनुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव।।९।। [रोला निक्षेपों के चक्र विलय नय नहीं जनमते। अर प्रमाण के भाव असत हो जाते भाई।। अधिक कहें क्या द्वैतभाव भी भासित ना हो। शुद्ध आतमा का अनुभव होने पर भाई ।।९।। खंडान्वय सहित अर्थ:- ''अस्मिन् धाम्नि अनुभवमुपयाते द्वैतमेव न भाति'' [अस्मिन्] इसस्वयंसिद्ध [धाम्नि ] चेतनात्मक जीववस्तुका [अनुभवम् ] प्रत्यक्षरूप आस्वाद [ उपयाते] आनेपर [द्वैतम् एव ] सूक्ष्म-स्थूल अन्तर्जल्प और बहिर्जल्परूप सभी विकल्प [ न भाति] नहीं शोभते हैं। १ बनवारी = सुनार की मूंस २ दस वान, चौदह वान आदि स्वर्णमें जो भेद है उसको वानभेद कहते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy