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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्दउसे काष्ठ, तृण और कण्डेकी आकृतिमें देखा जाय तो काष्ठकी अग्नि, तृणकी अग्नि और कण्डेकी अग्नि ऐसा कहना सच्चा ही है और जो अग्निकी उष्णतामात्र विचारा जाय तो उष्णमात्र है। काष्ठकी अग्नि, तृणकी अग्नि और कण्डेकी अग्नि ऐसे समस्त विकल्प झुठे हैं। उसी प्रकार नौ तत्त्वरूप जीवके परिणाम है। वे परिणाम कितने ही शुद्धरूप है, कितने ही अशुद्धरूप हैं। जो नौ परिणाममें ही देखा जाय तो नौ ही तत्त्व सच्चे हैं और जो चेतनामात्र अनुभव कियाजाय तो नौ ही विकल्प झूठे हैं।। ७।।
[मालिनी] चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे। अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकरूपं प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम्।।८।।
[रोला] शुद्ध कनक ज्यों छुपा हुआ है बानभेद में। नवतत्त्वों मे छुपी हुई त्यों आत्मज्योति है।। एकरूप उद्योतमान पर से विविक्त वह। अरे भव्यजन! पद-पद पर तुम उसको जानों।।८।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- 'आत्मज्योति: दृश्यताम्'' [आत्मज्योति:] आत्मज्योति अर्थात् जीवद्रव्यका शुद्ध ज्ञानमात्र, [दृश्यताम्] सर्वथा अनुभवरूप हो। कैसी है आत्मज्योति ? “चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नं अथ सततविविक्तं'' इस अवसर पर नाट्यरसके समान एक जीववस्तु आश्चर्यकारी अनेक भावरूप एक ही समयमें दिखलाई देती है। इसी कारणसे इस शास्त्रका नाम नाटक समयसार है। वही कहते हैं- [ चिरम् ] अमर्याद कालसे [इति] जो विभावरूप रागादि परिणाम-पर्यायमात्र विचारा जाय तो ज्ञानवस्तु [नवतत्त्वच्छन्नं] पूर्वोक्त जीवादि नौ तत्त्वरूपसे आच्छादित है। भावार्थ इस प्रकार है कि जीववस्तु अनादि कालसे धातु और पाषाणके संयोगके समान कर्म पर्याय से मिली ही चली आरही है सो मिली हुई होकर वह रागादि विभाव परिणामोंके साथ व्याप्य-व्यापकरूपसे स्वयं परिणमन कर रही है। वह परिणमन देखा जाय, जीवका स्वरूप न देखा जाय तो जीववस्तु नौ तत्त्वरूप है ऐसा दृष्टिमें आता है। ऐसा भी है, सर्वथा झूठ नहीं है, क्योंकि विभावरूप रागादि परिणामशक्ति जीवमें ही है। 'अथ'' अब 'अथ' पद द्वारा दूसरा पक्ष दिखलाते हैं:- वही जीववस्तु द्रव्यरूप है, अपने गुण-पर्यायोंमें विराजमान है। जो शुद्ध द्रव्यस्वरूप देखा जाय, पर्यायस्वरूप न देखा जाय तो वह कैसी है ? ''सततविविक्तम्' [ सतत] निरंतर [ विविक्तं] नौ तत्त्वोंके विकल्पसे रहित है, शुद्ध वस्तुमात्र है। भावार्थ इस प्रकार है कि शुद्ध स्वरूपका अनुभव सम्यक्त्व है।
और कैसी है वह आत्मज्योति ? ''वर्णमालाकलापे कनकमिव निमग्नं' 'वर्णमाला' पदके दो अर्थ हैं- एक तो बनवारी ' और दूसरा भेदपंक्ति। भावार्थ इस प्रकार है कि गुण-गुणीके भेदरूप भेदप्रकाश।
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