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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
ज्ञानका अंग है। व्यवहारनय जिनका हस्तावलम्ब है वे कैसे है ? 'प्राक्पदव्यामिह निहितपदानां' [इह] विद्यमान ऐसी जो [प्राक्पदव्याम्] ज्ञान उत्पन्न होनेपर प्रारंभिक अवस्था उसमें [निहितपदानां] निहित-रखा है पद-सर्वस्व जिन्होंने ऐसे हैं। भावार्थ इसप्रकार है- जो कोई सहजरूपसे अज्ञानी है, जीवादि पदार्थोंका द्रव्य-गुण-पर्यायस्वरूप जानने के अभिलाषी हैं, उनके लिए गुण-गुणी भेदरूप कथन योग्य है। ''हन्त तदपि एष: न किञ्चित्'' यद्यपि व्यवहारनय हस्तावलम्ब है तथापि कुछ नहीं, ‘नोंध' [ ज्ञान, समझ ] करनेपर झूठा है। वे जीव कैसे हैं जिनके व्यवहारनय झूठा है ? " चिच्चमत्कारमात्रं अर्थं अन्तः पश्यतां'' [ चित् ] चेतना [ चमत्कार] प्रकाश [मात्रं] इतनी ही है [अर्थं ] शुद्ध जीववस्तु, उसको [अन्तः पश्यतां] प्रत्यक्षपने अनुभवते हैं। भावार्थ इस प्रकार है- वस्तुका अनुभव होनेपर वचनका व्यवहार सहज ही छूट जाता है। कैसी है वस्तु ? ''परमं'' उत्कृष्ट है, उपादेय है। और कैसी है वस्तु ? ''परविरहितं'' [ पर द्रव्यकर्मनोकर्म-भावकर्मसे [ विरहितं] भिन्न है।। ५।।
[शार्दूलविक्रीडित] एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्य: पृथक् । सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः।।६।।
[हरिगीत] नियत है जो स्वयं के एकत्व में नय शुद्ध से। वह ज्ञानका घन पिण्ड पूरण पृथक् है परद्रव्य से।। नवतत्त्व की संतति तज बस एक यह अपनाइये। इस आतमा का दर्श दर्शन आतमा ही चाहिए।।६।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- 'तत् नः अयं एक: आत्मा अस्तु'' [ तत्] इस कारण [नः] हमें [अयं] यह विद्यमान [एक:] शुद्ध [आत्मा] चेतनपदार्थ [ अस्तु] होओ। भावार्थ इस प्रकार हैजीववस्तु चेतनालक्षण तो सहज ही है। परन्तु मिथ्यात्वपरिणामके कारण भ्रमित हुआ अपने स्वरूपको नहीं जानता, इससे अज्ञानी ही कहना। अतएव ऐसा कहा कि मिथ्या परिणामके जानेसे यही जीव अपने स्वरूपका अनुभवशीली होओ। क्या करके ? ''इमाम् नवतत्त्वसन्ततिम् मुक्त्वा'' [इमाम् ] आगे कहे जानेवाले [नवतत्त्व] जीव-अजीव-आस्रव-बंध-संवर-निर्जरा-मोक्ष-पुण्यपापके [ सन्ततिम् ] अनादि संबंधको [ मुक्त्वा] छोड़कर। भावार्थ इस प्रकार है- संसार-अवस्थामें जीवद्रव्य नौ तत्त्वरूप परिणमा है, वह तो विभाव परिणति है, इसलिए नौ तत्त्वरूप वस्तुका अनुभव मिथ्यात्व है।
------------------------ * पंडित श्री राजमल्लजी कृत टीकामें यहाँ ''पूर्णज्ञानधनस्य'" पदका अर्थ करने का रह गया है, जो अर्थ इस प्रकार करा जा सकता है:-और कैसा है शुद्ध जीव ? ''पूर्णज्ञानधनस्य' पूर्ण स्व-पर ग्राहकशक्तिका पुंज है।
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