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कहान जैन शास्त्रमाला]
जीव-अधिकार
अनुभव निर्विकल्प है, इसलिए शुद्ध जीववस्तुका अनुभव होनेपर दोनों नयविकल्प झूठे हैं। और कैसा है जिनवचन ? " स्यात्पदाङ्के:"[ स्यात्पद] स्याद्वाद अर्थात् अनेकान्त- जिसका स्वरूप पीछे कहा है, वही है [अङ्के] चिह्न जिसका, ऐसा है। भावार्थ इस प्रकार है- जो कुछ वस्तुमात्र है वह तो निर्भेद है। वह वस्तुमात्र वचनके द्वारा कहनेपर जो कुछ वचन बोला जाता है वही पक्षरूप है। कैसे हैं आसन्नभव्य जीव ? ''स्वयं वान्तमोहाः'' [स्वयं] सहजपने [ वान्त] वमा है [ मोहाः] मिथ्यात्व-विपरीतपना, ऐसे हैं। भावार्थ इस प्रकार है- अनन्त संसार जीवके भ्रमते हुए जाता है। वे संसारी जीव एक भव्यराशि है, एक अभव्यराशि है। उसमें अभव्यराशि जीव त्रिकालही मोक्ष जाने के अधिकारी नहीं। भव्य जीवोंमें कितने ही जीव मोक्ष जाने योग्य है। उनके मोक्ष पहुँचनेका कालपरिमाण है। विवरण- यह जीव इतना काल बीतनेपर मोक्ष जायगा ऐसी नोंध केवलज्ञानमें है। वह जीव संसार में भ्रमते भ्रमते जभी अर्धपुद्गलपरावर्तनमात्र रहता है तभी सम्यक्त्व उपजने योग्य है। इसका नाम काललब्धि कहलाता है। यद्यपि सम्यक्त्वरूप जीवद्रव्य परिणमता है तथापि काललब्धिके बिना करोड़ उपाय जो किये जायँ तो भी जीव सम्यक्त्वरूप परिणमन योग्य नहीं ऐसा नियम है। इससे जानना कि सम्यक्त्व-वस्तु यत्नसाध्य नहीं, सहजरूप है।। ४।।
[मालिनी] व्यवहारणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्यामिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः। तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किञ्चित्।।५।।
[रोला] ज्यों दुर्बल को लाठी है हस्तावलम्ब त्यों । उपयोगी व्यवहार सभी को अपरमपद में।। पर उपयोगी नहीं रंच भी उनलोगों को। जो रमते हैं परम-अर्थ चिन्मय चिद्घनमें ।।५।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "व्यवहरणनयः यद्यपि हस्तावलम्ब: स्यात्'' [व्यवहरणनयः] जितना कथन। उसका विवरण-जीववस्तु निर्विकल्प है। वह तो ज्ञानगोचर है। वही जीववस्तुको कहना चाहें तब ऐसे ही कहने में आता है कि जिसके गण दर्शन-ज्ञान-चारित्र वह जीव। जो कोई बह साधिक [ अधिक बद्धिमान ] हो तो भी ऐसे ही कहना पडे। इतने कहने का नाम व्यवहार है। यहाँ कोई आशंका करेगा कि वस्त निर्विकल्प है, उसमें विकल्प उपजाना अयक्त है। वहाँ समाधान इस प्रकार है कि व्यवहारनय हस्तावलम्ब है। [ हस्तावलम्ब:] जैसे कोई नीचे पडा हो तो हाथ पकड़कर ऊपर लेते हैं वैसे ही गुण-गुणीरूप भेदकथन ज्ञान उपजने का एक अंग है। उसका विवरण-- जीवका लक्षण चेतना इतना कहनेपर पुद्गलादि अचेतन द्रव्यसे भिन्नपने की प्रतीति उपजती है। इसलिए जबतक अनुभव होता है तबतक गुण-गुणीभेदरूप कथन
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