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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] साध्य-साधक-अधिकार २५१ [शार्दूलविक्रीडित] यस्माद्वैतमभूत्पुरा स्वपरयोर्भूतं यतोऽत्रान्तरं रागद्वेषपरिग्रहे सति यतो जातं क्रियाकारकैः। भुञ्जाना च यतोऽनुभूतिरखिलं खिन्ना क्रियायाः फलं तद्विज्ञानघनौघमग्नमधुना किञ्चिन्न किञ्चित्किल।।१४-२७७।। [हरिगीत] गतकाल में अज्ञान से एकत्व परसे जब हुआ । फलरूप में रस-राग अर कतृत्व पर में तब हुआ ।। उस क्रियाफल को भोगती अनुभूति मैली हो गई। किन्तु अब सद्ज्ञान से सब मलिनता लव हो गई।।२७७।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "किल तत् किञ्चित् अखिलं क्रियायाः फलं अधुना तत् विज्ञानघनौघमग्नम् खिन्ना न किञ्चित्'' [किल] निश्चयसे [ तत्] जिसका अवगुण कहेंगे ऐसा जो [किञ्चित् अखिलं क्रियायाः फलं] कुछ एक पर्यायार्थिक नयसे मिथ्यादृष्टि जीवके अनादि कालसे लेकर नाना प्रकारकी भोग सामग्रीको भोगते हुए मोह-राग-द्वेषरूप अशुद्ध परिणतिके कारण कर्मका बंध अनादि कालसे होता था सो [अधुना] सम्यक्त्वकी उत्पत्तिसे लेकर [तत् विज्ञानघनौघमग्नम्] शुद्ध जीवस्वरूपके अनुभवमें समाता हुआ [खिन्ना] मिट गया सो [न किञ्चित् ] मिटनेपर कुछ है ही नहीं; जो था सो रहा। कैसा था क्रियाका फल ? 'यस्मात् स्वपरयोः पूरा द्वैतम् अभूत्'' [ यस्मात् ] जिस क्रियाके फलके कारण [ स्वपरयोः] यह आत्मस्वरूप यह परस्वरूप ऐसा [पुरा] अनादि कालसे [ द्वैतम् अभूत् ] द्विविधापन हुआ। भावार्थ इस प्रकार है कि मोह-राग-द्वेष स्वचेतना परिणति जीवकी ऐसा माना। और क्रियाफलसे क्या हुआ ? " यतः अत्र अन्तरं भूतं'' [ यतः] जिस क्रियाफलके कारण [अत्र] शुद्ध जीववस्तुके स्वरूपमें [अन्तरं भूतं] अन्तराय हुआ। भावार्थ इस प्रकार है कि जीवका स्वरूप तो अनन्त चतुष्टयरूप है। अनादिसे लेकर अनन्त काल गया, जीवने अपने स्वरूपको नहीं प्राप्त किया, चतुर्गति संसारका दुःख प्राप्त किया, सो बह भी क्रियाके फलके कारण। और क्रियाफलसे क्या हुआ ? "यतः रागद्वैषपरिग्रहे सति क्रियाकारकै: जातं'' [यतः] जिस क्रियाके फलसे [रागद्वेष ] अशुद्ध परिणतिरूप [ परिग्रहे] परिणाम हुआ। ऐसा [ सति] होनेपर [ क्रियाकारकै: जातं] जीव रागादि परिणामोंका कर्ता है तथा भोक्ता है इत्यादि जितने विकल्प उत्पन्न हुए उतने क्रियाके फलसे उत्पन्न हुए। और क्रियाके फलके कारण क्या हुआ ? ''यतः अनुभूति: भुजाना'' [ यतः] जिस क्रियाके फलके कारण [अनुभूतिः] आठ कर्मोके उदयका स्वाद [ भुज्जाना] भोगा। भावार्थ इस प्रकार है कि आठही कर्मोंके उदयसे जीव अत्यन्त दुःखी है सो भी क्रियाके फलके कारण। ।१४-२७७।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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