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समयसार - कलश
क्योंकि ऐसा है जीवद्रव्य - '' चित्रात्मशक्तिसमुदायमय: '' [ चित्र ] अनेक प्रकार अस्तिपना नास्तिपना एकपना अनेकपना ध्रुवपना अध्रुवपना ईत्यादि अनेक हैं ऐसे जो [ आत्मशक्ति ] जीवद्रव्यके गुण उमका जो [ समुदाय ] द्रव्यसे अभिन्नपना [ मय: ] उसमय अर्थात् ऐसा है जीवद्रव्य; इसलिए एक शक्तिको कहता है एक नय, किन्तु अनन्त शक्तियाँ हैं, इस कारण एक एक नय करते हुए अनन्त नय होते हैं। ऐसा करते हुए अनेक विकल्प उपजते हैं, जीवका अनुभव खो जाता है। इसलिए निर्विकल्प ज्ञान वस्तुमात्र अनुभव करने योग्य है ।। ७ - २७० ।।
[ भगवान् श्री कुन्दकुन्द -
न द्रव्येण खण्डयामि, न क्षेत्रेण खण्डयामि, न कालेन खण्डयामि, न भावेन खण्डयामि; सुविशुद्ध एको ज्ञानमात्रभावोऽस्मि । *
मैं वस्तुस्वरूप हूँ। और समस्त भेद - विकल्पोंसे
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खंडान्वय सहित अर्थ:- '' ज्ञानमात्र भावः अस्मि' ' [ भावः अस्मि ] कैसा हू ? ज्ञानमात्र "" चेतनामात्र है सर्वस्व जिसका ऐसा हूँ। " एक: '' रहित हुँ। और कैसा हूँ ?' सुविशुद्धः '' द्रव्यकर्म-भावकर्म - नोकर्मरूप उपाधिसे रहित हुँ । और कैसा हूँ?‘— द्रव्येण न खण्डयामि'' जीव स्वद्रव्यरूप है ऐसा अनुभवने पर भी मैं अखण्डित हूँ । ' क्षेत्रेण न खण्डयामि'' जीव स्वक्षेत्ररूप है ऐसा अनुभवने पर भी मैं अखण्डित हूँ। " कालेन न खण्डयामि' जीव स्वकालरूप है ऐसा अनुभवने पर भी मैं अखण्डित हूँ। भावेन न खण्डयामि " जीव स्वभावरूप है ऐसा अनुभवने पर भी मैं अखण्डित हूँ । भावार्थ इस प्रकार है कि एक जीव वस्तु स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल स्वभावरूप चार प्रकारके भेदों द्वारा कही जाती है तथापि चार सत्ता नहीं है एक सत्ता है। उसका दृष्टान्त - चार सत्ता इस प्रकारसे तो नहीं है कि जिस प्रकार एक आम्रफल चार प्रकार है। उसका विवरण - कोई अंश रस है, कोई अंश छिलका है, कोई अंश गुठली है, कोई अंश मीठा है। उसी प्रकार एक जीववस्तु कोई अंश जीवद्रव्य है, कोई अंश जीवक्षेत्र है, कोई अंश जीवकाल है, कोई अंश जीवभाव है- इस प्रकार तो नहीं है। ऐसा माननेपर सर्व विपरीत होता है । इस कारण इस प्रकार है कि जिस प्रकार एक आम्रफल स्पर्श रस गन्ध वर्णे बिराजमान पुद्गलका पिण्ड है, इसलिए स्पर्शमात्रसे विचारनेपर स्पर्शमात्र है, रसमात्रसे विचारनेपर रसमात्र है, गंधमात्रसे विचारनेपर गंधमात्र है, वर्णमात्रसे विचारनेपर वर्णमात्र है । उसी प्रकार एक जीववस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव बिराजमान है, इसलिए स्वद्रव्यरूपसे विचारनेपर स्वद्रव्यमात्र है, स्वक्षेत्ररूपसे विचारनेपर स्वक्षेत्रमात्र है, स्वकालरूपसे विचारनेपर स्वकालमात्र है, स्वभावरूपसे विचारनेपर स्वभावमात्र है। इस कारण ऐसा कहा कि जो वस्तु है वह अखण्डित है। अखण्डित शब्दका ऐसा अर्थ है।
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* श्री समयसारकी आत्मख्याति टीकामें इस अंशको कलशरूप नहीं गिनकर गद्यरूप गिना गया है। अतः आत्मख्याति में उसको कलशरूपसे क्रमांक नहीं दिया गया है।
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