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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[किञ्चन वाञ्छति] ऐसा कुछ विपरीतपना मानता है एकान्तवादी। ज्ञानको ऐसा करना चाहता है"टङ्कोत्कीर्णविशुद्धबोधविसराकारात्मतत्त्वाशया'' [ टङ्कोत्कीर्ण] सर्व काल एकसमान, [ विशुद्ध] समस्त विकल्पसे रहित [बोध ] ज्ञानवस्तुके [ विसराकार] प्रवाहरूप [आत्मतत्त्व] जीववस्तु हो [ आशया] ऐसा करनेकी अभिलाषा करता है। उसका समाधान करता है स्याद्वादी - "स्याद्वादी ज्ञानं नित्यं उज्ज्वलं आसादयति'' [ स्याद्वादी] अनेकान्तवादी [ ज्ञानं] ज्ञानमात्र जीववस्तुको [नित्यं] सर्व काल एकसमान [उज्ज्वलं] समस्त विकल्पसे रहित [आसादयति] स्वादरूप अनुभवता है। "अनित्यतापरिगमे अपि'' यद्यपि उसमें पर्याय द्वारा अनित्यपना घटितहोता है। कैसा है स्याद्वादी ? "तत् चिद्वस्तु अनित्यतां परिमृशन्' [तत् ] पूर्वोक्त [ चिद्वस्तु] ज्ञानमात्र जीवद्रव्यको [अनित्यतां परिमृशन्] विनश्वररूप अनुभवता हुआ। किस कारणसे ? "वृत्तिकमात्'' [वृत्ति] पर्यायके [ क्रमात् ] कोई पर्याय होती है कोई पर्याय नाशको प्राप्त होती है ऐसे भावके कारण। भावार्थ इस प्रकार है कि पर्याय द्वारा जीववस्त अनित्य है ऐसा अनुभवता है स्याद्वादी।। १५-२६१।।
_ [अनुष्टुप] इत्यज्ञानविमूढानां ज्ञानमात्रं प्रसाधयन्। आत्मतत्त्वमनेकान्तः स्वयमेवानुभूयते।।१६-२६२।।
[ दोहा] मूढजनों को इस तरह ज्ञानमात्र समझाय । अनेकान्त अनुभति में उतरा आतमराय।।२६२।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "इति अनेकान्तः स्वयम् अनुभूयते एव'' [इति] पूर्वोक्त प्रकार से अनेकान्तः] स्याद्वाद [ स्वयम् ] अपने प्रतापसे बलात्कार ही [अनुभूयते] अङ्गीकाररूप होता है, [ एव] अवश्यकर। किनको अङ्गीकार होता है ? "अज्ञानविमूढानां''[अज्ञान] पूर्वोक्त एकान्तवादमें [विमूढानां] मग्न हुए हैं जो मिथ्यादृष्टि जीव उनको। भावार्थ इस प्रकार है कि स्याद्वाद ऐसा प्रमाण है जिसे सुनते मात्र ही एकान्तवादी भी अंगीकार करते हैं। कैसा है स्याद्वाद ? 'आत्मतत्त्वम् ज्ञानमात्रं प्रसाधयन्'' [आत्मतत्त्वम् ] जीवद्रव्यको [ ज्ञानमात्रं] चेतना सर्वस्व [प्रसाधयन्] ऐसा प्रमाण करता हुआ। भावार्थ इस प्रकार है कि ज्ञानमात्र जीववस्तु है ऐसा स्याद्वाद साध सकता है, एकान्तवादी नहीं साध सकता।। १६-२६२।।
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