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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] स्याद्वाद-अधिकार २३३ [शार्दूलविक्रीडित] अध्यास्यात्मनि सर्वभावभवनं शुद्धस्वभावच्युतः सर्वत्राप्यनिवारितो गतभयः स्वैरं पशुः क्रीडति। स्याद्वादी तु विशुद्ध एव लसति स्वस्य स्वभावं भरादारुढ: परभावभावविरहव्यालोकनिष्कम्पितः।।१३-२५९ ।। [हरिगीत] सब ज्ञेय ही है आतमा यह मानकर स्वच्छन्द हो। परभाव में ही नित रमें बस इसलिए ही नष्ट हों ।। पर स्यादवादी तो सदा आरूढ़ है निजभाव में। विरहित सदा परभाव से विलसे सदा निष्कम्प हो।।२५९ ।। __ खंडान्वय सहित अर्थ:- भावार्थ इस प्रकार है कि कोई एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा है जो वस्तुको द्रव्यमात्र मानता है, पर्यायरूप नहीं मानता है। इसलिए जितनी हैं ज्ञेयवस्तु, उनकी अनन्त हैं शक्ति, उनको जानता है ज्ञान; जानता हुआ ज्ञेयकी शक्तिकी आकृतिरूप परिणमता है, ऐसा देखकर जितनी ज्ञेयकी शक्ति उतनी ज्ञानवस्तु ऐसा मानता है मिथ्यादृष्टि एकान्तवादी। उसके प्रति ऐसा समाधान करता है स्याद्वादी कि ज्ञानमात्र जीववस्तुका ऐसा स्वभाव है कि समस्त ज्ञेयकी शक्तिको जाने, जानता हुआ आकृतिरूप परिणमता है। परन्तु ज्ञेयकी शक्ति ज्ञेयमें है, ज्ञानवस्तुमें नहीं है। ज्ञानकी जाननेरूप पर्याय है, इसलिए ज्ञानवस्तुकी सत्ता भिन्न है ऐसा कहते हैं-''पशुः स्वैरं क्रिडति'' [ पशुः] मिथ्यादृष्टि एकान्तवादी [ स्वैरं क्रीडति] हेय उपादेय ज्ञानसे रहित होकर स्वेच्छाचाररूप प्रवर्तता है। भावार्थ इस प्रकार है कि ज्ञेयकी शक्तिको ज्ञानसे भिन्न नहीं मानता है। जितनी ज्ञेयकी शक्ति है उसे ज्ञानमें मानकर नाना शक्तिरूप ज्ञान है, ज्ञेय है ही नहीं ऐसी बुद्धिरूप प्रवर्तता है। कैसा है एकान्तवादी ? "शुद्धस्वभावच्युतः'' [शुद्धस्वभाव] ज्ञानमात्र जीववस्तुसे [च्युतः] च्युत है अर्थात् उसको विपरीतरूप अनुभवता है। विपरीतपना क्यों है ? ''सर्वभावभवनं आत्मनि अध्यास्य'' [ सर्व] जितनी जीवादि पदार्थरूप ज्ञेयवस्तु उनके [भाव] शक्तिरूप गुणपर्याय अशंभेद उनकी [भवनं] सत्ताको [आत्मनि] ज्ञानमात्र जीववस्तुमें [ अध्यास्य] प्रतीति कर। भावार्थ इस प्रकार है कि ज्ञान गोचर है समस्त द्रव्य की शक्ति। उनकी आकृतिरूप परिणमा है ज्ञान, इसलिए सर्व शक्ति ज्ञानकी है ऐसा मानता है। ज्ञेयकी तथा ज्ञानकी भिन्न सत्ता नहीं मानता है। और कैसा है ? "सर्वत्र अपि अनिवारितः गतभयः'' [ सर्वत्र] स्पर्श रस गन्ध वर्ण शब्द ऐसा इन्द्रियविषय तथा मन वचन काय तथा नाना प्रकार ज्ञेयकी शक्ति, इनमें [अपि] अवश्य कर [अनिवारितः ] मैं शरीर, मैं मन, मैं वचन , मैं काय, मैं स्पर्श रस गंध वर्ण शब्द इत्यादि परभावको अपना जानकर प्रवर्तता है; [गतभयः ] मिथ्यादृष्टिके कोई भाव परभाव नहीं है जिससे डर होवे; ऐसा है ओकान्तवादी। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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