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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
" स्फुटम् अपि'' प्रकाशरूपसे प्रगट हैं यद्यपि। कैसा है एकान्तवादी ? 'प्रक्षालनं कल्पयन्' कलंक प्रक्षालनेका अभिप्राय करता है। किसमें ? "ज्ञेयाकारकलङ्कमेचकचिति'' [ ज्ञेय] जितनी ज्ञेयवस्तु है उस [आकार] ज्ञेयको जानते हुए हुआ है उसकी आकृतिरूप ज्ञान ऐसा जो [कलङ्क] कलंक उसके कारण [ मेचक ] अशुद्ध हुआ है, ऐसी है [ चिति] जीववस्तु, उसमें। भावार्थ इस प्रकार है कि ज्ञेयको जानता है ज्ञान, उसको एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि जीव स्वभाव नहीं मानता है, अशुद्धपनेरूपसे मानता है। एकान्तवादीनका अभिप्राय ऐसा क्यों है ? "एकाकारचिकीर्षया' क्योंकि [एकाकार] समस्त ज्ञेयके जानपनेसे रहित होता हुआ निर्विकल्परूप ज्ञानका परिणाम [ चिकीर्षया] जब ऐसा होवे तब ज्ञान शुद्ध है ऐसा है अभिप्राय एकान्तवादीका। उसके प्रति ‘एक-अनेकरूप' ज्ञानका स्वभाव साधता है स्याद्वादी सम्यग्दृष्टि जीव-''अनेकान्तविद् ज्ञानं पश्यति'' [अनेकान्तविद् ] स्याद्वादी जीव [ज्ञानं] ज्ञानमात्र जीववस्तुको [पश्यति] साध सकता है - अनुभव कर सकता है। कैसा है ज्ञान ? "स्वतः क्षालितं'' सहज ही शुद्धस्वरूप है। स्याद्वादी ज्ञानको कैसा जानकर अनुभवता है ? "तत् वैचित्र्ये अपि अविचित्रताम् पर्यायैः अनेकतां उपगतं परिमृशन्" [तत्] ज्ञानमात्र जीववस्तु [वैचित्र्ये अपि अविचित्रताम्] अनेक ज्ञेयाकारकी अपेक्षा पर्यायरूप अनेक है तथापि द्रव्यरूप एक है, [पर्यायैः अनेकतां उपगतं] यद्यपि द्रव्यरूप एक है तथापि अनेक ज्ञेयाकाररूप पर्यायकी अपेक्षा अनेकपनाको प्राप्त होती है ऐसे स्वरूपको अनेकान्तवादी साध सकता है -अनुभव-गोचर कर सकता है। [ परिमृशन्] ऐसी द्रव्यरूप पर्यायरूप वस्तुको अनुभवता हुआ स्याद्वादी' ऐसा नाम प्राप्त करता है।। ५-२५१ ।।
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