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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
ज्ञानवस्तु है ऐसा साधने के लिए समर्थ होता है। स्याद्वादी ज्ञानवस्तुको कैसी मानता है ? " विश्वात् भिन्नम्' [विश्वात्] समस्त ज्ञेयसे [भिन्नम्] निराला है। और कैसा मानता है ?
"अविश्वविश्वघटितं'' [अविश्व] समस्त ज्ञेयसे भिन्नरूप [विश्व] अपने द्रव्य-गुण-पर्यायसे [घटितं] जैसा है वैसा अनादिसे स्वयंसिद्ध निष्पन्न है-ऐसी है ज्ञानवस्तु। ऐसा क्यों मानता है ? “यत् तत्'' जो जो वस्तु है "तत् पररूपतः न तत्'' वह वस्तु परवस्तुकी अपेक्षा वस्तुरूप नहीं है। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार ज्ञानवस्तु ज्ञेयरूपसे नहीं है, ज्ञानरूपसे है। उसी प्रकार ज्ञेयवस्तु भी ज्ञानवस्तुसे नहीं है, ज्ञेयवस्तुरूप है। इसलिए ऐसा अर्थ प्रगट हुआ कि पर्यायद्वारसे ज्ञान विश्वरूप है, द्रव्यद्वारसे आपरूप है। ऐसा भेद स्याद्वादी अनुभवता है। इसलिए स्याद्वाद वस्तुस्वरूपका साधक है, एकान्तपना वस्तुका घातक है।। ३-२४९ ।।
[शार्दूलविक्रीडित] बाह्यार्थग्रहणस्वभावभरतो विष्वग्विचित्रोल्लसदज्ञेयाकारविशीर्णशक्तिरभितस्त्रुट्यन्पशुर्नश्यति। एकद्रव्यतया सदा व्युदितया भेदभ्रमं ध्वंसयन्नेकं ज्ञानमबाधितानुभवनं पश्यत्यनेकान्तवित्।।४-२५० ।।
[हरिगीत] छिन्न-भिन्न हो चहुँ ओर से बाह्यार्थ के परिग्रहण से । खण्ड-खण्ड होकर नष्ट होता स्वयं अज्ञानी पशु।। एकत्व के परिज्ञान से भ्रमभेद जो परित्याग दे । वे स्याद्वादी जगत में एकत्व का अनुभव करें ।।२५०।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- भावार्थ इस प्रकार है कि कोई एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि जीव पर्यायमात्रको वस्तु मानता है, वस्तुको नहीं मानता है, इसलिए ज्ञानवस्तु अनेक ज्ञेयको जानती है, उसको जानती हुई ज्ञेयाकार परिणमती है ऐसा जानकर ज्ञानको अनेक मानता है, एक नहीं मानता है। उसके प्रति उत्तर इस प्रकार है कि एक ज्ञानको माने बिना अनेक ज्ञान ऐसा नहीं सधता है, इसलिए ज्ञानको एक मानकर अनेक मानना वस्तुका साधक है ऐसा कहते है – 'पशु: नश्यति' एकान्तवादी वस्तुको नहीं साध सकता है। कैसा है ? ''अभितः त्रुट्यन्''जैसा मानता है उस प्रकार वह झूठा ठहरता है। और कैसा है ? 'विष्वग्विचित्रोल्लसद्ज्ञेयाकारविशीर्णशक्ति:'' [विश्वक् ] जो अनन्त है [ विचित्र ] अनन्त प्रकारका है [ उल्लसत् ] प्रगट विद्यमान है ऐसा जो [ ज्ञेय ] छह द्रव्योंका समूह उसके [ आकार] प्रतिबिम्बरूप परिणमी है ऐसी जो ज्ञानपर्याय [विशीर्णशक्ति:] एतावन्मात्र ज्ञान है ऐसी श्रद्धा करनेपर गल गई है वस्तु साधनेकी सामर्थ्य जिसकी, ऐसा है मिथ्यादृष्टि जीव।
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