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कहान जैन शास्त्रमाला]
स्याद्वाद-अधिकार
२२१
__ [शार्दूलविक्रीडित] विश्वं ज्ञानमिति प्रतयं सकलं दृष्ट्वा स्वतत्त्वाशया भूत्वा विश्वमयः पशुः पशुरिव स्वच्छन्दमाचेष्टते। यत्तत्तत्पररूपतो न तदिति स्याद्वाददर्शी पुनविश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत्।।३-२४९ ।।
[हरिगीत] इस ज्ञान में जो झलकता वह विश्व ही बस ज्ञान है। अबुध ऐसा मानकर स्वच्छन्द हो वर्तन करें ।। अर विश्व को जो जानकर भी विश्वमय होते नहीं। वे स्याद्वादी जगत में निजतत्त्व का अनुभव करें।।२४९ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- भावार्थ इस प्रकार है कि कोई मिथ्यादृष्टि ऐसा है जो ज्ञानको द्रव्यरूप मानता है, पर्यायरूप नहीं मानता है। इसलिए जिस प्रकार जीवद्रव्यको ज्ञानवस्तुरूपसे मानता है उस प्रकार ज्ञेय जो पुद्गल धर्म अधर्म आकाश कालद्रव्य उनको भी ज्ञेयवस्तु नहीं मानता है, ज्ञानवस्तु मानता है। उसके प्रति समाधान इस प्रकार है कि ज्ञान ज्ञेयको जानता है ऐसा ज्ञानका स्वभाव है तथापि ज्ञेयवस्तु ज्ञेयरूप है, ज्ञानरूप नहीं है- 'पशुः स्वच्छन्दम् आचेष्टते'' [ पशुः] एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि जीव [ स्वच्छन्दम् ] स्वेच्छाचाररूप- कुछ हेयरूप, कुछ उपादेयरूप ऐसा भेद नहीं करता हुआ, समस्त त्रैलोक्य उपादेय ऐसी बुद्धि करता हुआ -[ आचेष्टते] ऐसी प्रतीति करता हुआ निःशंकपने प्रवर्तता है। किसके समान ? ''पशुः इव'' तिर्यंञ्चके समान। कैसा होकर प्रवर्तता है ? "विश्वमयः भूत्वा'' 'अहं विश्वम् ' ऐसा जान आप विश्वरूप हो प्रवर्तता है। ऐसा क्यों है ? कारण कि "सकलं स्वतत्त्वाशया दृष्ट्वा'' [ सकलं] समस्त ज्ञेयवस्तुको [ स्वतत्त्वाशया] ज्ञानवस्तुकी बुद्धिरूपसे [ दृष्ट्वा ] प्रगाढ़ प्रतीतिकर। ऐसी प्रगाढ़ प्रतीति क्यों होती है ? कारण कि "विश्वं ज्ञानम् इति प्रतयं'' त्रैलोक्यरूप जो कुछ है वह ज्ञानवस्तुरूप है ऐसा जानकर। भावार्थ इस प्रकार है कि ज्ञानवस्तु पर्यायरूपसे ज्ञेयाकार होती है सो मिथ्यादृष्टि पर्यायरूप भेद नहीं मानता है, समस्त ज्ञेयको ज्ञानवस्तुरूप मानता है। उसके प्रति उत्तर इस प्रकार है कि ज्ञेयवस्तु ज्ञेयरूप है, ज्ञानरूप नहीं है। यही कहते हैं- "पुन: स्याद्वाददर्शी स्वतत्त्वं स्पृशेत्' [पुन: ] एकान्तवादी जिस प्रकार कहता है उस प्रकार ज्ञानको वस्तुपना नहीं सिद्ध होता है। स्याद्वादी जिस प्रकार कहता है उस प्रकार वस्तुपना ज्ञानको सधता है। कारण कि एकान्तवादी ऐसा मानता है कि समस्त ज्ञानवस्तु है, सो इसके माननेपर लक्ष्य-लक्षणका अभाव होता है, इसलिए लक्ष्य- लक्षणका अभाव होनेपर वस्तुकी सत्ता नहीं सधती है। स्याद्वादी ऐसा मानता है कि ज्ञानवस्तु है, उसका लक्षण है -समस्त ज्ञेयका जानपना, इसलिए इसके कहनेपर स्वभाव सधता है, स्वस्वभावके सधनेपर वस्तु सधती है, अतएव ऐसा कहा जो स्याद्वाददर्शी [स्वतत्त्वं स्पृशेत्] वस्तुको द्रव्य–पर्यायरूप मानता है, ऐसा अनेकान्तवादी जीव
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