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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
किस कारणसे ? कारण कि "एवं शुद्धस्य ज्ञानस्य'' पूर्वोक्त प्रकारसे साधा है जो शुद्धस्वरूप जीव उसके 'देहः एव न विद्यते'' शरीर ही नहीं है अर्थात् शरीर है वह भी जीवका स्वरूप नहीं है। भावार्थ इस प्रकार है कि कोई मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यक्रियाको मोक्षका कारण मानता है उसे समझाया है।। ४६-२३८।।
[अनुष्टुप] दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तत्त्वमात्मनः। एक एव सदा सेव्या मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा।। ४७-२३९ ।।
[दोहा] मोक्षमार्ग बस एक ही रत्नत्रयमय होय । अतः मुमुक्षु के लिए वह ही सेवन योग्य ।।२३९ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "मुमुक्षुणा एक: एव मोक्षमार्ग: सदा सेव्यः'' [मुमुक्षुणा] मोक्षको उपादेय अनुभवता है ऐसा जो पुरुष, उसके द्वारा [ एक: एव] शुद्धस्वरूपका अनुभव [ मोक्षमार्ग:] सकल कर्मोके विनाशका कारण है ऐसा जानकर [ सदा सेव्यः] निरन्तर अनुभव करने योग्य है। वह मोक्षमार्ग क्या है ? "आत्मनः तत्त्वम्'' शुद्ध जीवका स्वरूप है। और कैसा है आत्मतत्त्व ? "दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा'' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र उन तीन स्वरूपकी एक सत्ता है आत्मा [ सर्वस्व ] जिसका, ऐसा है।। ४७–२३९ ।।
[शार्दूलविक्रीडित] एको मोक्षपथो य एष नियतो दृग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति। तस्मिन्नेव निरन्तरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन् सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति।। ४८-२४०।।
[हरिगीत] दृगज्ञानमय वृत्यात्मक यह एक ही है मोक्षपथ। थित रहें अनुभव करें अर ध्यावे अहिर्निश जो पुरुष। जो अन्य को न छुयें अर निज में विहार करें सतत। वे पुरुष ही अतिशिघ्र ही समैसार को पावें उदित।।२४०।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- “सः नित्योदयं समयस्य सारम् अचिरात् अवश्यं विन्दति'' [ सः ] ऐसा है जो सम्यग्दृष्टि जीव वह [ नित्योदयं] नित्य उदयरूप [ समयस्य सारम् ] सकल कर्मका विनाश कर प्रगट हुआ है जो शुद्ध चैतन्यमात्र उसको [अचिरात्] अति ही थोड़े कालमें [अवश्यं विन्दति] सर्वथा आस्वादता है। भावार्थ इस प्रकार है कि निर्वाणपदको प्राप्त होता है। कैसा है ? “यः तत्र एव स्थितिम् एति'' [ यः ] जो सम्यग्दृष्टि जीव [तत्र] शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तुमें [ एव] एकाग्र होकर
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