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कहान जैन शास्त्रमाला]
सर्वविशुद्धज्ञान-अधिकार
२११
___ खंडान्वय सहित अर्थ:- "यत् आत्मनः इह आत्मनि सन्धारणम्'' [ यत् ] जो [आत्मनः] अपने जीवका [इह आत्मनि] अपने स्वरूपमें [सन्धारणम् ] स्थिर होना है "तत्'' एतावन्मात्र समस्त, "उन्मोच्यम् उन्मुक्तम्' 'जितना हेयरूपसे छोड़ना था सो छूटा। "अशेषतः'' कुछ छोड़नेके लिए बाकी नहीं रहा। "तथा तत् आदेयम् अशेषतः आत्तम्'' [ तथा] उसी प्रकार [ तत् आदेयम् ] जो कुछ ग्रहण करने के लिए था [ अशेषतः आत्तम् ] सो समस्त ग्रहण किया। भावार्थ इस प्रकार है कि शुद्ध स्वरूपका अनुभव सर्व कार्यसिद्धि। कैसा है आत्मा ? ''संहृतसर्वशक्तेः'' [ संहृत] विभावरूप परिणमे थे वे ही हुए हैं स्वभावरूप ऐसे हैं [ सर्वशक्ते:] अनन्त गुण जिसके, ऐसा है। और कैसा है ? ""पूर्णस्य '' जैसा था वैसा प्रगट हुआ।। ४४-२३६ ।।
[अनुष्टुप] व्यतिरिक्तं परद्रव्यादेवं ज्ञानमवस्थितम्। कथमाहारकं तत्स्यायेन देहोऽस्य शक्यते।। ४५-२३७।।*
[सोरठा] ज्ञान स्वभावी जीव, परद्रव्यों से भिन्न ही। कैसे कहे सदेह जब आहारक ही नहीं।।२३७।।
श्लोकार्थ:- “एवं'' इस प्रकार [पूर्वोक्त रीतिसे] 'ज्ञानम् परद्रव्यात् व्यतिरिक्तं अवस्थितम्'' ज्ञान पर द्रव्यसे प्रथक अवस्थित [-निश्चळ रहा हुआ] है; "तत्'' वह [ज्ञान] "आहारकं'' आहारक [अर्थात् कर्म-नोकर्मरूप आहार करनेवाला] ''कथम् स्यात्'' कैसे हो सकता है "येन'' कि जिससे ''अस्य देह: शङ्कयते'' उसके देहकी शंका की जा सके ? [ ज्ञानके देह हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसके कर्म-नोकर्मरूप आहार ही नहीं है ] ।। ४५-२३७ ।।
[अनुष्टुप] एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते। ततो देहमयं ज्ञातुर्न लिङ्गं मोक्षकारणम्।। ४६-२३८।।
[सोरठा] शुद्धज्ञानमय जीव, के जब देह नहीं कही। तब फिर यह द्रव लिंग, शिवमग कैसे हो सके।।२३८ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "ततः देहमयं लिङ्गं ज्ञातु: मोक्षकारणम् न'' [ततः] तिस कारणसे [ देहमयं लिङ्गं ] द्रव्यक्रियारूप यतिपना अथवा गृहस्थपना [ ज्ञातुः] जीवके [ मोक्षकारणम् न ] सकल कर्मक्षयलक्षण मोक्षका कारण तो नहीं है।
* पं. श्री राजमलजी कृत टीकामें यह श्लोक छूट गया है। अतः उक्त श्लोक अर्थ सहित, हिन्दी समयसार के आधार से यहाँ दिया गया है।
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