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कहान जैन शास्त्रमाला]
सर्वविशुद्धज्ञान-अधिकार
१८९
इष्यते''[सदा एव] सर्व ही काल [ कर्तृ] परिणमता है जो द्रव्य [ कर्म] द्रव्यका परिणाम[ एकम् इष्यते] एक है अर्थात् कोई जीव अथवा पुद्गलद्रव्य अपने परिणामोंके साथ व्याप्य-व्यापकरूप परिणमता है, इसलिए कर्ता है, वही कर्म है; क्योंकि परिणाम उस द्रव्यके साथ व्याप्य-व्यापकरूप है ऐसा [इष्यते] विचार करनेपर घटित होता है - अनुभवमें आता है। अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्य कर्ता, अन्य द्रव्यका परिणाम अन्य द्रव्यका कर्म ऐसा तो अनुभवमें घटता नहीं। कारण कि दो द्रव्योंका व्याप्य-व्यापकपना नहीं है।। १८-२१०।।
[नर्दटक] ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत। न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः।। १९-२११ ।।
[दोहा] अरे कभी होता नहीं कर्ता के बिन कर्म । निश्चय से परिणाम ही परिणामी का कर्म।। सदा बदलता ही रहे यह परिणामी द्रव्य । एकरूप रहती नहीं वस्तु की थिति नित्य ।।२११ ।।
श्लोकार्थ:- "ननु किल'' वास्तवमें "परिणामः एव'' परिणाम ही 'विनिश्चयतः'' निश्चयसे 'कर्म' कर्म है और “सः परिणामिनः एव भवेत् , अपरस्य न भवति'' परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामीका ही होता है, अन्यका नहीं [ क्योंकि परिणाम अपने अपने द्रव्यके आश्रित हैं, अन्यके परिणामका अन्य आश्रय नहीं होता]; और "कर्म कर्तृशून्यं इह न भवति'' कर्म कर्ताके बिना नहीं होता, ''च'' तथा 'वस्तुनः एकतया स्थितिः इह न'' वस्तुकी एकरूप [ कूटस्थ] स्थिति नहीं होती [ क्योंकि वस्तु द्रव्य पर्याय स्वरूप होनेसे सर्वथा नित्यत्व बाधा सहित है ]; "ततः'' इसलिए "तत् एव कर्तृ भवतु'' वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्मका कर्ता है [ यह निश्चित सिद्धान्त है ] ।। १९-२११।।
* पंडित श्री राजमलजीकी टीकामें 'आत्मख्याति'का यह श्लोक अनुवाद करनेसे रह गया है, अत: हिन्दी समयसारके आधारसे उक्त श्लोक अर्थसहित यहाँ दिया गया है।
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