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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[इमम् स्वभावनियमं] जीवद्रव्य ज्ञानावरणादि पुद्गलपिण्डका कर्ता नहीं है ऐसे वस्तुस्वभावको [न कलयन्ति] स्वानुभवप्रत्यक्षरूपसे नहीं अनुभवती है। भावार्थ इस प्रकार है कि मिथ्यादृष्टि जीवराशि शुद्ध स्वरूपके अनुभवसे भ्रष्ट है, इसलिए पर्यायरत है, इसलिए मिथ्यात्व राग द्वेष अशुद्ध परिणामरूप परिणमती है। "तत: भावकर्मकर्ता चेतनः एव स्वयं भवति न अन्यः'' [ततः] तिस कारण [भावकर्म] मिथ्यात्व राग द्वेष अशुद्ध चेतनारूप परिणामका, [कर्ता चेतनः एव स्वयं भवति] व्याप्यव्यापकरूप परिणमता है ऐसा जीवद्रव्य, आप कर्ता होता है, [न अन्यः] पुद्गलकर्म कर्ता नहीं होता है। भावार्थ इस प्रकार है कि जीव मिथ्यादृष्टि होता हुआ जैसे अशुद्ध भावरूप परिणमता है वैसे भावोंका कर्ता होता है ऐसा सिद्धान्त है।। १०-२०२।।
[शार्दूलविक्रीडित] कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयोरज्ञायाः प्रकृतेः स्वकार्यफलभुग्भावानुषंगात्कृतिः। नैकस्याः प्रकृतेरचित्त्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्ता ततो जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः ।। ११-२०३।।
[रोला] अरे कार्य कर्ता के बिना नहीं हो सकता, भावकर्म भी एक कार्य है सब जग जाने । और पौद्गलिक प्रकृति सदा ही रही अचेतन, वह कैसे कर सकती चेतन भाव कर्म को ।। प्रकृति-जीव दोनों ही मिलकर उसे करें यदि, तो फिर दोनों मिलकर ही फल क्यों ना भोगें ? भावकर्म तो चेतन का ही करे अनुसरण , इसकारण यह जीव कहा है उनका कर्ता।।२०३।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "ततः अस्य जीवः कर्ता च तत् चिदनुगं जीवस्य एव कर्म'' [ततः] तिस कारणसे [ अस्य] रागादि अशुद्ध चेतनापरिणामके [ जीवः कर्ता] जीवद्रव्य उस कालमें व्याप्यव्यापकरूप परिणमता है, इसलिए कर्ता है [च ] और [ तत् ] रागादि अशुद्ध परिणमन [ चिद्अनुगं] अशुद्धरूप है, चेतनारूप है, इसलिए [ जीवस्य एव कर्म] उस कालमें व्याप्य-व्यापकरूप जीवद्रव्य आप परिणमता है, इसलिए जीवका किया है। किस कारणसे ? ''यत् पुद्गलः ज्ञाता न" [ यत्] जिस कारणसे [पुद्गलः ज्ञाता न] पुद्गलद्रव्य चेतनारूप नहीं है। रागादि परिणाम चेतनारूप है, इसलिए जीवका किया है। कहा है भाव उसे गाढ़ा-पक्का करते है- "कर्म अकृतं न'' [ कर्म] रागादि अशुद्ध चेतनारूप परिणाम [अकृतं न] अनादिनिधन आकाशद्रव्यके समान स्वयंसिद्ध है ऐसा भी नहीं है,
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