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क्रिया संस्कार छूटने पर ही शुद्धस्वरूपका अनुभव संभव है इसका स्पष्टीकरण कलश १०४ की टीका में इसप्रकार किया है----
'शुभ-अशुभ क्रिया में मग्न होता हुआ जीव विकल्पी है, इससे दुःखी है। क्रिया संस्कार छूटकर शुद्धस्वरूपका अनुभव होते ही जीव निर्विकल्प है, इससे सुखी है।'
कैसा अनुभव होने पर मोक्ष होता है इसका स्पष्टीकरण कलश १०५ की टीका में इसप्रकार किया है----
‘जीवका स्वरूप सदा कर्म से मुक्ति है। उसको अनुभवने पर मोक्ष होता है ऐसा घटता है, विरुद्ध तो नहीं।'
स्वरूपाचरण चारित्र क्या है इसका स्पष्टीकरण कलश १०६ की टीका में इस प्रकार किया है
'कोई जानेगा कि स्वरूपाचरण चारित्र ऐसा कहा जाता है जो आत्मा के शुद्ध स्वरूपको विचारे अथवा चिन्तवे अथवा एकाग्ररूपसे मग्न होकर अनुभवे। सो ऐसा तो नहीं, उसके करने पर बन्ध होता है, क्योंकि ऐसा तो स्वरूपाचरण चारित्र नहीं है। तो स्वरूपाचरण चारित्र कैसा है ? जिप्रकार पन्ना [ सुवर्णपत्र] पकाने से सुवर्णमें की कालीमा जाती है, सुवर्ण शुद्ध होता है उसी प्रकार जीवके अनादि से अशुद्ध चेतनारूप रागादि परिणम था, वह जाता है, शुद्ध स्वरूपमात्र शुद्ध चेतनारूप जीव द्रव्य परिणमता है, उसका नाम स्वरूपाचरण चारित्र कहा जाता है, ऐसा मोक्षमार्ग है।'
शुभ-अशुभ क्रिया आदि बन्धका कारण है इसका निर्देश करते हुए कलश १०७ की टीका में लिखा है----
'जो शुभ-अशुभ क्रिया, सूक्ष्म-स्थूल अंतर्जल्प बहिजल्परूप जितना विकल्परूप आचरण है वह सब कर्मका उदयरूप परिणमन है, जीवका शुद्ध परिणमन नहीं है, इसलिये समस्त ही आचरण मोक्षका कारण नहीं है, बन्धका कारण है।'
विषय-कषाय के समान व्यवहार चारित्र दुष्ट है इसका स्पष्टीकरण करते हुए कलश १०८ में लिखा है----
'यहाँ कोई जानेगा कि शुभ-अशुभ क्रियारूप में जो आचरणरूप चारित्र है सो करने योग्य नहीं है उसी प्रकार वर्जन करने योग्य भी नहीं है ? उत्तर इसप्रकार है---वर्जन करने योग्य है। कारण कि व्यवहार चारित्र होता हुआ दुष्ट है, अनिष्ट है, घातक है, इसलिये विषय-कषाय के समान क्रियारूप चारित्र निषिद्ध है।'
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