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स्वभाव और कर्मोपाधिमें अंतरको दिखलाते हुए कलश ९९ की टीका में लिखा है-
‘जैसे सूर्यका प्रकाश होने पर अंधकार फट जाता है उसीप्रकार शुद्धचैतन्यमात्रका अनुभव होने पर यावत् समस्त विकल्प मिट जाते हैं। ऐसी शुद्धचैतन्य वस्तु है सो मेरा स्वभाव, अन्य समस्त कर्म की उपाधि है । '
नय विकल्पके मिटने के उपायका निर्देश करते हुए कलश ९२ – ९३ की टीका में लिखा है-
शुद्धस्वरूपका अनुभव होने पर जिसप्रकार नयविकल्प मिटते हैं उसीप्रकार समस्त कर्मके उदय होनेवाले जितने भाव हैं वे भी अवश्य मिटते हैं ऐसा स्वभाव है । '
जीव अज्ञान भाव का कब कर्ता है कब अकर्ता है इसका स्पष्टीकरण करते हुए कलश ९४ की टीका में लिखा है
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' कोई ऐसा मानेगा की जीव द्रव्य सदा अकर्ता है उसके प्रति ऐसा समाधान कि जितने काल तक जीवका सम्यक्त्व गुण प्रगट नहीं होता उतने काल तक जीव मिथ्यादृष्टि है । मिथ्यादृष्टि हो तो अशुद्ध परिणाम का कर्ता होता है । सो जब सम्यक्त्व गुण प्रगट होता है तब अशुद्ध परिणाम मिटता है, तब अशुद्ध परिणाम का कर्ता नहीं होता । '
अशुभ कर्म बुरा और शुभ कर्म भला ऐसी मान्यता अज्ञानका फल है इसका स्पष्टीकरण करते हुए कलश १०० की टीका में लिखा ह ै.
' जैसे अशुभ कर्म जीव को दुःख करता है उसीप्रकार शुभकर्म भी जीवको दुःख करता है। कर्म में तो भला कोई नहीं है। अपने मोह को लिये हुए मिथ्यादृष्टि जीव कर्मको भला करके मानता है। ऐसी भेद प्रतीति शुद्ध स्वरूपका अनुभव हुआ तबसे पाई जाती है । '
शुभोपयोग भला, उससे क्रम से कर्म निर्जरा होकर मोक्ष प्राप्ति होती है यह मान्यता कैसे झूठी है इसका स्पष्टीकरण करते हुए कलश १०९ की टीका में लिखा है---
'कोई जीव शुभोपयोगी होता हुआ यतिक्रिया में मग्न होता हुआ शुद्धोपयोग को नहीं जानता, केवल यतिक्रियामात्र मग्न है। वह जीव ऐसा मानता है कि मैं तो मुनीश्वर, हमको विषय- कषाय सामग्री निषिद्ध है। ऐसा जानकर विषय - कषाय सामग्री को छोड़ता है, आपको धन्यपना मानता है, मोक्षमार्ग मानता है। सो विचार करने पर ऐसा जीव मिथ्यादृष्टि है । कर्मबन्ध को करता है, काँई भलापन तो नहीं
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