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समयसार - कलश
[ शार्दूलविक्रीडित]
सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम् । एते ये तु समुल्लसन्ति विविधा भावाः पृथग्लक्षणास्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ।। ६-१८५।।
[ हरिगीत ]
मैं तो सदा ही शुद्ध परमानन्द चिन्मयज्योति हूँ । सेवन करें सिद्धान्त यह सब ही मुमुक्षु बन्धुजन।। जो विविध परभाव मुझमें दिखें वे मुझसे पृथक । वे मैं नहीं हूँ क्योंकि वे मेरे लिए परद्रव्य है । । १८५ ।।
[ भगवान् श्री कुन्दकुन्द -
खंडान्वय सहित अर्थ:- '' मोक्षार्थिभिः अयं सिद्धान्तः सेव्यतां [ मोक्षार्थिभिः ] सकल कर्मका क्षय होनेपर होता है अतीन्द्रिय सुख, उसे उपादेयरूप अनुभवते हैं ऐसे हैं जो कोई जीव उनके द्वारा [ अयं सिद्धान्तः ] जैसा कहेंगे वस्तुका स्वरूप उसका [ सेव्यतां ] निरंतर अनुभव करो। कैसे हैं मोक्षार्थी जीव? ' उदात्तचित्तचरितै: [ उदात्त ] संसार - शरीर भोगसे रहित हैं [ चित्तचरितै: ] मनका अभिप्राय जिनका ऐसे हैं । कैसा हैं वह परमार्थ ? ' अहम् शुद्धं चिन्मयम् ज्योतिः सदा एव अस्मि'' [ अहम् ] स्वसंवेदन प्रत्यक्ष हूँ जो मैं जीवद्रव्य [ शुद्धं चिन्मयम् ज्योतिः ] शुद्ध ज्ञानस्वरूप प्रकाश [सदा] सर्व काल [ एव ] निश्चयसे [ अस्मि ] हूँ "तुं ये एते विविधाः भावाः ते अहं न अस्मि'' [तु] एक विशेष है - [ ये एते विविधाः भावा: ] शुद्ध चैतन्यस्वरूपसे अनमिलते हैं जो रागादि अशुद्ध भाव शरीर आदि सुखदुःख आदि नाना प्रकार अशुद्ध पर्याय [ ते अहं न अस्मि ] ये सब जीवद्रव्यस्वरूप नहीं हैं। कैसे हैं अशुद्ध भाव ? ' ' पृथग्लक्षणा: '' मेरे शुद्ध चैतन्यस्वरूप से नहीं मिलते हैं। किस कारणसे ? यतः अत्र ते समग्राः अपि मम परद्रव्यं [यत: ] जिस कारणसे [अत्र ] निजस्वरूपका अनुभव करनेपर [ ते समग्राः अपि ] जितने हैं रागादि अशुद्ध विभाव पर्याय वे [ मम परद्रव्यं] मुझे परद्रव्यरूप हैं। कारण कि शुद्ध चैतन्य लक्षणसे मिलते हुए नहीं हैं, इसलिए समस्त विभावपरिणाम हेय हैं ।। ६-१८५ ।।
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