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कहान जैन शास्त्रमाला]
मोक्ष-अधिकार
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इसी अर्थको कहते हैं, दूसरा दोष ऐसा – 'तत्त्यागे चितः अपि जडता भवति'' [तत्त्यागे] चेतनाका अभाव होनेपर [ चितः अपि] जीवद्रव्यको भी [ जडता भवति] पुद्गल द्रव्यके समान जीवद्रव्य भी अचेतन है ऐसी प्रतीति उत्पन्न होती है। 'च'' तीसरा दोष ऐसा कि 'व्यापकात् विना व्याप्यः आत्मा अन्तम् उपैति" [व्यापकात् विना] चेतनगुणका अभाव होनेपर [व्याप्यः आत्मा] चेतना गुणमात्र है जो जीवद्रव्य वह [अन्तम् उपैति] मूलसे जीवद्रव्य नहीं है ऐसी प्रतीति भी उत्पन्न होती है। ऐसे तीन दोष मोटे दोष हैं। ऐसे दोषोंसे जो कोई भय करता है उसे ऐसा मानना चाहिए कि चेतना दर्शन ज्ञान ऐसे दो नाम संज्ञा बिराजमान है। ऐसा अनुभव सम्यक्त्व है।। ४-१८३।।
[इन्द्रवज्रा] एकश्चितश्चिन्मय एव भावो भावाः परे ये किल ते परेषाम। ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एव भावो भावाः परे सर्वत एव हेयाः।। ५-१८४ ।।
[ दोहा] चिन्मय चेतनभाव हैं पर हैं पर के भाव। उपादेय चिद्भाव हैं हेय सभी परभाव।।१८४ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "चित: चिन्मयः भाव: एव'' [चितः] जीवद्रव्यका [चिन्मयः] चेतनामात्र ऐसा [भाव: ] स्वभाव है। [ एव] निश्चयसे ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है। कैसा है चेतनामात्र भाव ? ''एक'' निर्विकल्प है, निर्भेद है, सर्वथा शुद्ध है। “किल ये परे भावाः ते परेषाम् [किल] निश्चयसे [ ये परे भावाः] शुद्ध चैतन्य स्वरूपसे अनमिलते हैं जो द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्मसम्बन्धी परिणाम वे [ परेषाम्] समस्त पुद्गलकर्मके है, जीवके नहीं हैं। "ततः चिन्मयः भाव: ग्राह्यः एव परे भावाः सर्वतः हेयाः एव'' [ ततः] तिस कारणसे [चिन्मयः भावः] शुद्ध चेतनामात्र है जो स्वभाव वह [ग्राह्यः एव ] जीवका स्वरूप है ऐसा अनुभव करना योग्य है। [ परे भावाः] इससे अनमिलते हैं जो द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्मस्वभाव वे [ सर्वतः हेयाः एव] सर्वथा प्रकार जीवका स्वरूप नहीं हैं ऐसा अनुभव करना योग्य है। ऐसा अनुभव सम्यक्त्व है। सम्यक्त्वगुण मोक्षका कारण है।। ५-१८४।।
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