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निर्जरा- अधिकार
कहान जैन शास्त्रमाला ]
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[ मन्दाक्रान्ता ]
टङ्कोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाज: सम्यग्दृष्टेर्यदिह सकलं घ्नन्ति लक्ष्माणि कर्म । तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाक्कर्मणो नास्ति बन्धः पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्जरैव ।। २९-१६१।।
[ दोहा ]
नित निःशंक सद्वृष्टि को कर्मबन्ध न होय । पूर्वोदय को भोगते सतत निर्जरा होय।।१६१।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- " यत् इह सम्यग्दृष्टेः लक्ष्माणि सकलं कर्म घ्नन्ति '' [ यत् ] जिस कारणसे [इह] विद्यमान [ सम्यग्दृष्टे: ] शुद्धस्वरूप परिणमा है जो जीव, उसके [ लक्ष्माणि ] निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना अंगरूप गुण [ सकलं कर्म ] ज्ञानावरणादि आठ प्रकार पुद्गलद्रव्यके परिणमनको [ घ्नन्ति ] हनन करते हैं। भावार्थ इस प्रकार है कि सम्यग्दृष्टि जीवके जितने कोई गुण है वे शुद्धपरिणमनरूप हैं, इससे कर्मकी निर्जरा है।‘तत् तस्य अस्मिन् कर्मणः मनाक् बन्धः पुनः अपि नास्ति ' [ तत् ] तिस कारण [ तस्य ] सम्यग्दृष्टि जीवके [ अस्मिन् ] शुद्ध परिणामके होनेपर [ कर्मण: ] ज्ञानावरणादि कर्मोंका [मनाक् बन्धः ] सूक्ष्ममात्र भी बन्ध [ पुनः अपि नास्ति ] कभी नहीं ।'' तत् पूर्वोपात्तं अनुभवतः निश्चितं निर्जरा एव ' ' [ तत्] ज्ञानावरणादि कर्म [ पूर्वोपात्तं ] सम्यक्त्व उत्पन्न होनेके पहले अज्ञान रागपरिणामसे बाँधा था जो कर्म उसके उदयको [ अनुभवत्: ] जो भोगता है ऐसे सम्यग्दृष्टि जीवके [ निश्चितं ] निश्चयसे [ निर्जरा एव ] ज्ञानावरणादि कर्मका गलना है। कैसा है सम्यग्दृष्टि जीव ? 'टङ्कोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाज:' [ टङ्कोत्कीर्ण ] शाश्वत जो [ स्वरस ] स्वपरग्राहक शक्ति उससे [निचित ] परिपूर्ण ऐसा [ ज्ञान] प्रकाश गुण, वही है [ सर्वस्व ] आदि मूल जिसका ऐसा जो जीवद्रव्य, उसका [ भाज: ] अनुभव करनेमें समर्थ है। ऐसा है सम्यग्दृष्टि जीव, सो उसके नूतन कर्मका बन्ध नहीं है, पूर्वबद्ध कर्मकी निर्जरा है ।। २९ - १६१ । ।
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