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समयसार - कलश
[ शार्दूलविक्रीडित ]
एकं ज्ञानमनाद्यनन्तमचलं सिद्धं किलैतत्स्वतो यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः। तन्नाकस्मिकमत्र किञ्चन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।। २८-१६०।।
[ हरिगीत ]
इसमें अचानक कुछ नहीं यह ज्ञान निश्चल एक है। यह है सदा ही एकसा एवं अनादि अनन्त है ।
जब जानते यह ज्ञानीजन तब होंय क्यों भयभीत वे। वे तो सतत निःशंक हो निज ज्ञान का अनुभव करें ।। १६० ।।
[ भगवान् श्री कुन्दकुन्द -
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खंडान्वय सहित अर्थः- “ सः ज्ञानं सदा विन्दति ''[ सः ] सम्यग्दृष्टि जीव [ ज्ञानं ] शुद्धचैतन्य वस्तुको [ सदा] त्रिकाल [ विन्दति ] आस्वादता है। कैसा है ज्ञान ? स्वयं" सहजही से उपजा है । और कैसा है ? सततं '' अखंडधारा प्रवाहरूप है। और कैसा है ? 'सहजं ' बिना उपाय ऐसी ही वस्तु है । कैसा है सम्यग्दृष्टि जीव ? ' ' निःशंक : ' आकस्मिक भयसे रहित है । आकस्मिक अर्थात अनचिन्ता तत्काल ही अनिष्टका उत्पन्न होना। क्या विचारता है सम्यग्दृष्टि जीव ? अत्र तत् आकस्मिकम् किञ्चन न भवेत्, ज्ञानिनः तद्भी: कुत: ' [ अत्र ] शुद्ध चैतन्यवस्तुमें, [ तत् ] कहा है लक्षण जिसका ऐसा [ आकस्मिकम् ] क्षणमात्रमें अन्य वस्तुसे अन्य वस्तुपना [ किञ्चन न भवेत् ] ऐसा कुछ है ही नहीं, तिस कारण [ ज्ञानिनः ] सम्यग्दृष्टि जीवके [ तद्भी: ] आकस्मिकपनाका भय [कुत:] कहाँसे होवे? अपितु नहीं होता । किस कारणसे ? " एतत् ज्ञानं स्वतः यावत्'' [ एतत् ज्ञानं] शुद्ध जीव वस्तु [ स्वतः यावत् ] आप सहज जैसी है जितनी है " इदं तावत् सदा एव भवेत्'' [ इदं] शुद्ध वस्तुमात्र [ तावत् ] वेसी है उतनी है। [ सदा ] अतीत, अनागत, वर्तमान कालमें [एव भवेत्] निश्चयसे ऐसी ही है। अत्र द्वितीयोदयः न [ अत्र ] शुद्ध वस्तुमें [ द्वितीयोदय: ] औरसा स्वरूप [ न ] नहीं होता है। कैसा है ज्ञान ? " एकं" समस्त विकल्पोंसे रहित है। और कैसा है ?'' अनाद्यनन्तम्'' नहीं है आदि, नहीं है अंत जिसका ऐसा है । और कैसा है ? ' अचलं " अपने स्वरूप से विचलित नहीं होता। और कैसा है ? ' सिद्धं " निष्पन्न है ।। २८१६० ।।
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