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समयसार-कलश
१३८
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द"विविक्तात्मनः'' [विविक्त ] भिन्न है [ आत्मनः ] आत्मस्वरूप जिसको ऐसा है जो भेदज्ञानी पुरुष उसे।। २३–१५५ ।।
[शार्दूलविक्रीडित] एषैकैव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलादेकं सदानाकुलैः। नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तगी: कुतो ज्ञानिनो निश्शंक: सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।। २४-१५६ ।।
हरिगीत] चूंकि एक-अभेद में ही वेद्य-वेदक भाव हों। अतएव ज्ञानी नित्य ही निज ज्ञान का अनुभव करें।। अन वेदना कोई है नहीं तब होंय क्यों भयभीत वे। वे तो सतत् निःशंक हो निज ज्ञानका अनुभव करें।।१५६ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "सः स्वयं सततं सदा ज्ञानं विन्दति'' [ स:] सम्यग्दृष्टि जीव [ स्वयं] अपने आप [ सततं] निरंतररूपसे [ सदा] त्रिकालमें [ ज्ञानं] जीवके शुद्ध स्वरूपको [विन्दति] अनुभवता है - आस्वादता है। कैसा है ज्ञान ? 'सहज' स्वभावसे ही उत्पन्न है। कैसा है सम्यग्दृष्टि जीव ? "निःशंक:'' सात भयोंसे मुक्त है। "ज्ञानिनः तगी: कुतः'' [ ज्ञानिनः] सम्यग्दृष्टि जीवको [ तगी: ] वेदनाका भय [ कुतः] कहाँ से होवे ? अपितु नहीं होता है। कारण कि "सदा अनाकुलैः'' सदा भेदज्ञानसे बिराजमान हैं जो पुरुष वे पुरुष "स्वयं वेद्यते'' स्वयं ऐसा अनुभव करते हैं कि ''यत् अचलं ज्ञानं एषा एका एव वेदना'' [ यत्] जिस कारणसे [ अचलं ज्ञानं] शाश्वत है जो ज्ञान [ एषा] यही [एका वेदना] जीवको एक वेदना है [ एव] निश्चयसे। 'अन्यागतवेदना एव न भवेत्'' [अन्या] इसे छोड़कर जो अन्य [आगतवेदना एव] कर्मके उदयसे हुई है सुखरूप अथवा दुःखरूप वेदना [न भवेत् ] जीवको है ही नहीं। ज्ञान कैसा है ? "एकं'' शाश्वत है-एकरूप है। किस कारणसे एकरूप है ? "निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलात्'' [निर्भेदोदित] अभेदरूपसे [वेद्यवेदक ] जो वेदता है वही वेदा जाता है ऐसा जो [ बलात्] सामर्थपना, उसके कारण। भावार्थ इस प्रकार है कि जीवका स्वरूप ज्ञान है, वह एकरूप है। जो साता-असाता कर्मके उदयसे सुख-दुःखरूप वेदना होती है वह जीवका स्वरूप नहीं है, इसलिए सम्यग्दृष्टि जीवको रोग उत्पन्न होनेका भय नहीं होता।। २४-१५६ ।।
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