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कहान जैन शास्त्रमाला]
निर्जरा-अधिकार
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प्रत्यक्षतया सर्वथा प्रकार मोक्षस्वरूप है। और कैसा है ? ''निरामयपदं'' जितने उपद्रव क्लेश हैं उन सबसे रहित है। और कैसा है ? "स्वयं संवेद्यमानं '' [ स्वयं ] आपके द्वारा [ संवेद्यमानं ] आस्वाद करनेयोग्य है। भावार्थ इस प्रकार है कि ज्ञानगुण ज्ञानगुणके द्वारा अनुभवयोग्य है, कारणान्तरके द्वारा ज्ञानगुण ग्राह्य नहीं। कैसी है मिथ्यादृष्टि जीवराशि ? 'कर्मभिः क्लिश्यन्तां'' [कर्मभिः] विशुद्ध शुभोपयोगरूप परिणाम, जैनोक्त सूत्रका अध्ययन, जीवादि द्रव्योंके स्वरूपका बारंबार स्मरण, पञ्च परमेष्ठीकी भक्ति इत्यादि हैं जो अनेक क्रियाभेद उनके द्वारा [क्लिश्यन्ता] बहुत आक्षेप [ घटाटोप] करते हैं तो करो तथापि शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति होगी सो तो शुद्ध ज्ञान द्वारा होगी। कैसी है करतूति ? "स्वयम् एव दुष्करतरैः'' [ स्वयम् एव ] सहजपने [ दुष्करतरैः] कष्टसाध्य है। भावार्थ इस प्रकार है कि जितनी क्रिया है वह सब दुःखात्मक है। शुद्धस्वरूप अनुभवकी नाईं सुखस्वरूप नहीं है। और कैसी है ? " मोक्षोन्मुखैः'' [ मोक्ष ] सकल कर्मक्षय उसकी [ उन्मुखैः ] परम्परा – आगे मोक्षका कारण होगी ऐसा भ्रम उत्पन्न होता है सो झूठा है। 'च'' और कैसे हैं मिथ्यादृष्टि जीव ? ' "महाव्रततपोभारेण चिरं भग्नाः क्लिश्यन्तां'' [ महाव्रत] हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म , परिग्रहसे रहितपना [ तपः ] महा परीषहोंका सहना उनका [ भार ] बहुत बोझ उसके द्वारा [ चिरं] बहुत काल पर्यन्त [ भग्नाः ] मरके चूरा होते हुए [ क्लिश्यन्तां] बहुत कष्ट करते है तो करो तथापि ऐसा करते हुए कर्मक्षय तो नहीं होता।। १०–१४२ ।।
[द्रुतविलंबित] पदमिदं ननु कर्मदुरासदं सहजबोधकलासुलभं किल। तत इदं निजबोधकलाबलात् कलयितुं यततां सततं जगत्।।११-१४३।।
[दोहा] क्रियाकाण्ड से ना मिले , यह आतम अभिराम। ज्ञानकला से सहज ही सुलभ आतमाराम ।। अतः जगत के प्राणियों! छोड़ जगत की आश। ज्ञानकला का ही अरे! करो नित्य अभ्यास।।१४३।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "ततः ननु इदं जगत् इदं पदम् कलयितुं सततं यततां'' [ ततः] तिस कारणसे [ननु] अहो [इदं जगत् ] विद्यमान है जो त्रैलोक्यवर्ती जीवराशि वह [इदं पदम्] निर्विकल्प शुद्ध ज्ञानमात्र वस्तु उसका [कलयितुं] निरंतर अभ्यास करनेके निमित्त [ सततं] अखण्ड धाराप्रवाहरूप [यततां] यत्न करे। किस कारण के द्वारा ? “निजबोधकलाबलात्' [निजबोध ] शुद्ध ज्ञान उसका [ कला] प्रत्यक्ष अनुभव उसका [बलात्] सामर्थपना उससे। क्योंकि 'किल'' निश्चयसे ज्ञानपद "कर्मदुरासदं'' [कर्म ] जितनी क्रिया है उससे [ दुरासदं] अप्राप्य है और
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