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कहान जैन शास्त्रमाला]
संवर-अधिकार
[उपजाति] सम्पद्यते संवर एष साक्षाच्छुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलम्भात्। स भेदविज्ञानत एव तस्मात् तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यम्।।५-१२९ ।।
[रोला] आत्मतत्व की उपलब्धि हो भेदज्ञान से । आत्मतत्व की उपलब्धि से संवर होता।। इसीलिए तो सच्चे दिल से नित प्रति करना। अरे भव्यजन! भव्यभावना भेदज्ञान की।।१२९ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "तद् भेदविज्ञानम् अतीव भाव्यम्'' [तत्] उस कारणसे [भेदविज्ञानम्] समस्त परद्रव्योंसे भिन्न चैतन्य स्वरूपका अनुभव [ अतीव भाव्यम्] सर्वथा उपादेय है ऐसा मानकर अखण्डित धाराप्रवाहरूप अनुभव करनायोग्य है। कैसा होनेसे ? “किल शुद्धात्मतत्त्वस्य उपलम्भात् एषः संवरः साक्षात् सम्पद्यते'' [किल ] निश्चयसे [शुद्धात्मतत्त्वस्य] जीवके शुद्धस्वरूपकी [ उपलम्भात् ] प्राप्ति होनेसे [ एष: संवर:] नूतन कर्मके आगमनरूप आस्रवका निरोधलक्षण संवर [ साक्षात् सम्पद्यते] सर्वथा प्रकार होता है। ''स: भेदविज्ञानतः एव'' [ सः] शुद्धस्वरूपका प्रगटपना [भेदविज्ञानतः] शुद्धस्वरूपके अनुभवसे [ एव] निश्चयसे होता है। 'तस्मात्'' तिस कारण भेदविज्ञान भी विनाशीक है तथापि उपादेय है ।। ५–१२९ ।।
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