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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 卐卐 -६संवर अधिकार 听听听 [शार्दूलविक्रीडित] आसंसारविरोधिसंवरजयैकान्तावलिप्तास्रवन्यक्कारात्प्रतिलब्धनित्यविजयं सम्पादयत्संवरम्। व्यावृत्तं पररूपतो नियमितं सम्यक् स्वरूपे स्फुरज्ज्योतिश्चिन्मयमुज्ज्वलं निजरसप्राग्भारमुज्जृम्भते।।१-१२५ ।। [हरिगीत] संवरजयी मदमत्त आस्रव भाव का अपलाप कर। व्यावृत्य हो पररूपसे सद्बोध संवर भास्कर ।। प्रगटा परम आनन्दमय निज आत्म के आधारसे। सद्ज्ञानमय उज्वल धवल परिपूर्ण निजरसभार से।।१२५ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "चिन्मयम् ज्योति: उज्जृम्भते'' [चित्] चेतना, वही है [मयम्] स्वरूप जिसका, ऐसा [ज्योतिः] प्रकाशस्वरूप वस्तु [ उजुम्भते] प्रगट होता है। कैसी है ज्योति ? “स्फुरत्'' सर्व काल प्रगट है। और कैसी है ? "उज्ज्वलं'' कर्मकलंकसे रहित है। और कैसी है ? निजरसप्राग्भारम्'' [निजरस] चेतनगुण, उसका [प्राग्भारम् ] समूह है। और कैसी है ? “पररूपतः व्यावृत्तं'' [ पररूपतः ] ज्ञेयाकार परिणमन, उससे [ व्यावृत्तं] पराङ्मुख है। भावार्थ इस प्रकार है – सकल ज्ञेयवस्तुको जानती है तद्रूप होती नहीं होती, अपने स्वरूप रहती है। और कैसी है ? '' स्वरूपे सम्यक् नियमितं'' [स्वरूपे] जीवका शुद्धस्वरूप,उसमें [ सम्यक् ] जैसी है वैसी [नियमितं] गाढ़रूपसे स्थापित है। और कैसी है ? ' 'संवरम् सम्पादयत्'' [संवरम् ] धाराप्रवाहरूप आस्रवता है ज्ञानावरणादि कर्म उसका निरोध [ सम्पादयत् ] करणशील है। भावार्थ इस प्रकार है - यहाँसे लेकर संवरका स्वरूप कहते है। कैसा है संवर ? "प्रतिलब्धनित्यविजयं''[प्रतिलब्ध ] पाया है [नित्य] शाश्वत [विजयं] जीतपना जिसने, ऐसा है। किस कारणसे ऐसा है ? "आसंसारविरोधिसंवर-जयैकान्तावलिप्तास्रवन्यक्कारात्'' [आसंसार] अनंत कालसे लेकर | विरोधि ] बेरी है ऐसा जो [ संवर] बध्यमान कर्मका विरोध, उसका | जय ] जीतपना, उसके द्वारा [ एकान्तावलिप्त ] मुझसे बड़ा तीन लोकमें कोई नहीं ऐसा हुआ है गर्व जिसको ऐसा [ आस्रव] धाराप्रवाहरूप कर्मका आगमन उसको | न्यक्कारात ] दूर करनेरूप मानभंगके कारण। भावार्थ इस प्रकार है -आस्रव तथा संवर परस्पर अति ही बेरी है, इसलिए अनंत कालसे सर्व जीवराशि विभाव मिथ्यात्व परिणतिरूप परिणमता है, इस कारण शुद्ध ज्ञानका प्रकाश नहीं है। इसलिए आस्रवके सहारे सर्व जीव है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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