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दूसरी बात यह ज्ञात होती है कि सर्वज्ञ वीतराग और दिव्यध्वनि इन दोनोंके मध्य निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध हैं । दिव्यध्वनि की प्रामाणिकताभी इसी कारण व्यवहार पदवी को प्राप्त होती है। स्वतः सिद्ध इसी भाव को व्यक्त करने वाला कविवर दौलतरामजी का यह वचन ज्ञातव्य है ।
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वसाय ।
भविभागनि जोगे तुम धुनि सुनि विभ्रम नसाय ।।
जिनवचसी रमन्ते [ क . ४]– इस पदका भाव स्पष्ट करते हुए कविवर ने जो कुछ अपूर्व अर्थका उद्घाटन किया है वह हृदयंगम करने योग्य है। वे लिखते हैं
‘वचन पुद्गल है उसकी रुचि करने पर स्वरूप की प्राप्ति नहीं। इसलिये वचन के द्वारा कही जाती है जो कोई उपादेय वस्तु उसका अनुभव करने पर फल प्राप्ति है । '
कविवर ने ‘जिनवचनसी रमन्ते' पद का यह अर्थ उसी कलश के उत्तरार्द्ध को दृष्टि में रखकर किया। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि दोनों नयों के विषयों को जानना एक बात है और जानकर निश्चय नयके विषयभूत शुद्ध वस्तुका आश्रय लेकर उसमें रममाण होना दूसरी बात है । कविवर ने उक्त शब्दों द्वारा इसी आशय को अभिव्यक्त किया है 1
–अर्वाचीनपदव्यां१
प्राक्पद्व्यां [ क ५]-- -व्यवहारपदव्यां२ । ज्ञानी जीवकी दो अवस्थाऐं होती है- - सविकल्प दशा और निर्विकल्प दशा । प्रकृतमे 'प्रक्पदवीं' पद का अर्थ 'सविकल्प दशा' है । इस द्वारा यह अर्थ स्पष्ट किया गया है कि यद्यपि सविकल्प दशा में व्यवहारनय हस्तावलम्ब है, परन्तु अनुभूति अवस्था में [ निर्विकल्प दशा में ] उसका कोई प्रयोजन नहीं। इस भाव को कविवर इन शब्दों में स्पष्ट करते हुए लिखते हैं
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' जो कोई सहज रूप से, अज्ञानी [ मन्दज्ञानी ] हैं, जीवादि पदार्थोंका द्रव्य-गुण- पर्याय स्वरूप जानने के अभिलाषी हैं, उनके लिये गुण-गुणी भेदरूप कथन योग्य है।'
नवतत्वगत्वेऽपि यदेकत्वं न मुञ्यति [ क• ७ ]अपने एकत्वका त्याग नहीं करती इस तथ्यको समझानेका शब्दों में पढ़िये
--- जीववस्तु नौ तत्वरूप होकर भी कविवरका दृष्टिकोण अनूठा है। उन्हीं के
' जैसे अग्नि दाहक लक्षणवाली है, वह काष्ठ, तृण, कण्डा आदि समस्त दाह्यको दहाती है, दहाती हुई अग्नि दाह्यकार होती है, पर उसका विचार है कि जो उसे काष्ठ, तृण और कण्दे की आकृति में देखा जाये तो काष्ठ की अग्नि, तृणकी अग्नि और कण्डे की अग्नि ऐसा कहना साँचा ही है । और जो अग्नि की उष्णता मात्र विचारा जाये तो उष्ण - मात्र है । काष्ठ की अग्नि, तृण की अग्नि और कण्डेकी अग्नि ऐसे समस्त विकल्प झूठे हैं । उसीप्रकार नौ तत्वरूप जीवके परिणाम हैं। वे परिणाम कितने ही शुद्धरूप हैं, कितने ही अशुद्धरूप हैं। जो नौ परिणाममें ही देखा जाये तो नौ ही तत्व साँचे हैं ओ जो चेतनमात्र अनुभव किया जाये तो नौ ही विकल्प झूठे हैं । '
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