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इसप्रकार यह टीका यहाँ अर्थगत अनेक विशेषताओंको लिये हुए हैं वहाँ इस द्वारा अनेक रहस्यों पर भी सुन्दर प्रकाश डाला गया है। तथा -----
नमः समयसाराय [क . १] -----समयसारको नमस्कार हो। अन्य पुद्गलादि द्रव्यों और संसारी जीवोंको नमस्कार न कर अमुक विशेषणोंसे युक्त समयसारको ही क्यों नमस्कार किया है ? यह रहस्य क्या है ? प्रयोजन को जाने बिना मन्द पुरुष भी प्रवृत्ति नहीं करता ऐसा न्याय है। कविवर के सामने यह समस्या थी। उसी समस्या के समाधान स्वरूप वे 'समयसार' पद में आये हुए 'सार' पद से व्यक्त होनेवाले रहस्य को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं---- 'शुद्धजीवके सारपना घटता है। सार अर्थात् हितकारी, असार अर्थात् अहितकारी। जो हितकारी सुख जानना, अहितकारी दुःख जानना। कारण की अजीव पदार्थ पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल के और संसारी जीव के सख नहीं. ज्ञान भी नहीं है और उनका स्वरूप जानने पर जाननहारे जीव को भी सुख नहीं, ज्ञान भी नहीं, इसलिये इनके सारपना घटता नहीं। शुद्ध जीव के सुख है, ज्ञान भी है, उनक नने पर---अनुभवने पर जाननहारे को सुख है, ज्ञान भी है, इसलिये शुद्ध जीव के सारपना घटता है।'
ये कविवर के सप्रयोजन भाव भरे शब्द हैं। इन्हें पढ़ते ही कविवर दौलतरामजीके छहढालाके ये वचन चित्तको आकर्षित कर लेते हैं---
तीन भूवन के सार वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार नमहँ त्रियोग सम्हारके ।। १।। आतम को हित है सुख, सो सुख आकलता बिन कहिये । आकुलता शिवमांहि न, तातें शिवमग लाग्यो चहिये ।।
मालूम पड़ता है कि कविवर दौलतरामजी के समक्ष यह टीका वचन था। उसे लक्ष्य में रखकर ही उन्होंने इन साररूप छन्दों की रचना की।
प्रत्यगातमनः [क . २]----दूसरे कलश द्वारा अनेकान्त स्वरूप भाववचन के साथ स्याद्वादमयी दिव्यध्वनिकी स्तुति की गई है। अतऐव प्रश्न हुआ कि वाणी तो पुद्गलरूप अचेतन है, उसे नमस्कार कैसा ? इस समस्त प्रसंग को ध्यान में रख कर कविवर कहते हैं---
· कोई वितर्क करेगा कि दिव्यध्वनी तो पुदगलात्मक है, अचेतन है, अचेतन को नमस्कार निषिद्ध है। उसके प्रति समाधान करने के निमित्त यह अर्थ कहा कि वाणी सर्वज्ञस्वरूप-अनुसारिणी है। ऐसा माने बिना भी बने नहीं। उसका विवरण--वाणी तो अचेतन है। उसको सुनने पर जीवादि पदार्थ का स्वरूप ज्ञान जिस प्रकार उपजता है उसी प्रकार जानना--वाणी का पूज्यपना भी है।'
कविवर के इस वचनों से दो बातें ज्ञात होती हैं--प्रथम तो यह कि दिव्यध्वनि उसीका नाम जो सर्वज्ञके स्वरूपके अनुरूप वस्तुस्वभावका प्रतिपादन करती है। इसी तथ्यको स्पष्ट करने के अभिप्रायसे कविवरने ‘प्रत्यगात्मन् ' शब्दका अर्थ सर्वज्ञ वीतराग किया है जो युक्त है।
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