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कहान जैन शास्त्रमाला ]
पुण्य-पाप-अधिकार
मोहनीय कर्मरूप
विवरण- अंतरंग निमित्त जीवकी विभावरूप परिणमन शक्ति, बहिरंग निमित्त परिणमा है पुद्गल पिण्डका उदय । सो मोहनीयकर्म दो प्रकारका है एक मिथ्यात्वरूप है, दूसरा चारित्रमोहरूप है। जीवका विभाव परिणाम भी दो प्रकारका है जीवका एक सम्यकत्वगुण है वही विभावरूप होकर मिथ्यात्वरूप परिणमा है। उसके प्रति बहिरंग निमित्त मिथ्यात्वरूप परिणमा है पुद्गलपिंडका उदय। जीवका एक चारित्रगुण है, वह विभावरूप परिणमता हुआ विषय कषायलक्षण चारित्रमोहरूप परिणमा है। उसके प्रति बहिरंग निमित्त है चारित्रमोहरूप परिणमा पुद्गलपिंडका उदय । विशेष ऐसा उपशमका क्षपणका क्रम इस प्रकार है, पहले मिथ्यात्वकर्मका उपशम होता है अथवा क्षपण होता है। उसके बाद चारित्रमोहका उपशम होता है अथवा क्षपण होता है। इसलिए समाधान ऐसा किसी आसन्नभव्य जीवके काललब्धि प्राप्त होनेसे मिथ्यात्वरूप पुद्गलपिण्ड कर्म उपशमता है अथवा क्षपण होता है। ऐसा होनेपर जीव सम्यक्त्वगुणरूप परिणमता है, वह परिणमन शुद्धतारूप है। वही जीव जब तक क्षपकश्रेणी पर चढ़ेगा तब तक चारित्रमोह कर्मका उदय है। उस उदय के रहते हुए जीव भी विषयकषायरूप परिणमता है । वह परिणमन रागरूप है, अशुद्धरूप है। इस कारण किसी कालमें जीवका शुद्धपना अशुद्धपना एक ही समय घटता है, विरुद्ध नहीं । ' किन्तु '' कुछ विशेष है, वह विशेष जिस प्रकार है उस प्रकार कहते हैं- " अत्र अपि " एक ही जीवके एक ही काल शुद्धपना अशुद्धपना यद्यपि होता है तथापि अपना अपना कार्य करते हैं । " यत् कर्म अवशतः बन्धाय समुल्लसति ' [ यत् ] जितनी [ कर्म ] द्रव्यरूप भावरूप अतंर्जल्प - बहिर्जल्परूप सूक्ष्म-स्थूळरूप क्रिया [ अवशत: ] सम्यग्दृष्टि पुरुष सर्वथा क्रियासे विरक्त है पर चारित्रमोह कर्मके उदय में बलात्कार होती है ऐसी [ बन्धाय समुल्लसति ] जितनी क्रिया है उतनी ज्ञानावरणादि कर्मबंध करती है, संवर निर्जरा अंशमात्र भी नहीं करती है । " तत् एकम् ज्ञानं मोक्षाय स्थितम् ' [ तत् ] पूर्वोक्त [ एकम् ज्ञानं ] एक शुद्ध चैतन्यप्रकाश [ मोक्षाय स्थितम् ] ज्ञानावरणादि कर्मक्षयका निमित्त है। भावार्थ इस प्रकार है एक जीवमें शुद्धपना अशुद्धपना एक ही काल होता है, परंतु जितना अंश शुद्धपना है उतना अंश कर्म-क्षपण है, जितना अंश अशुद्धपना है उतना अंश कर्मबंध होता है। एक ही काल दोनों कार्य होते हैं । " एव" ऐसा ही है, संदेह करना नहीं । कैसा है शुद्ध ज्ञान? ‘— परमं ’' सर्वोत्कृष्ट है- पूज्य है । और कैसा है ? " स्वतः विमुक्तं " तीनों कालोंमें समस्त परद्रव्योंसे भिन्न है । । ११-११० ।।
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