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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द[शार्दूलविक्रीडित] यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ् न सा कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः। किंवत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बन्धाय तन् मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः।। ११-११० ।।
_ [हरिगीत] यह कर्मविरति जबतलक ना पूर्णता को प्राप्त हो। हाँ, तबतलक यह कर्मधारा ज्ञानधारा साथ हो।। अवरोध इसमें है नहीं पर कर्मधारा बंधमय । मुक्तिमारग एक ही है , ज्ञानधारा मुक्तिमय।।११०।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- यहाँ कोई भ्रान्ति करेगा कि जो मिथ्यादृष्टिका यतिपना क्रियारूप है, सो बंधका कारण है, सम्यग्दृष्टिका है जो यतिपना शुभक्रियारूप, सो मोक्षका कारण है। कारण कि अनुभव ज्ञान तथा दया व्रत तप संयमरूप क्रिया दोनों मिलकर ज्ञानावरणादि कर्मका क्षय करते हैं। ऐसी प्रतीति कितने ही अज्ञानी जीव करते हैं। वहाँ समाधान ऐसा - जितनी शुभ अशुभ क्रिया, बहिर्जल्परूप विकल्प अथवा अंतर्जल्परूप अथवा द्रव्योंका विचाररूप अथवा शुद्धस्वरूपका विचार इत्यादि समस्त कर्मबंधका कारण है। ऐसी क्रियाका ऐसा ही स्वभाव है। सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टिका ऐसा भेद तो कुछ नहीं। ऐसी करतूतिसे ऐसा बंध है। शुद्ध स्वरूप परिणमनमात्रसे मोक्ष है। यद्यपि एक ही कालमें सम्यग्दृष्टि जीवके शुद्ध ज्ञान भी है, क्रियारूप परिणाम भी है। तथापि क्रियारूप है जो परिणाम उससे अकेला बंध होता है, कर्मका क्षय एक अंशमात्र भी नहीं होता है। ऐसा वस्तुका स्वरूप, सहारा किसका ? उसी समय शुद्धस्वरूप अनुभव ज्ञान भी है। उसी समय ज्ञानसे कर्मक्षय होता है, एक अंशमात्र भी बंध नहीं होता है। वस्तुका ऐसा ही स्वरूप है। ऐसा जिस प्रकार है उस प्रकार कहते हैं-'तावत्कर्मज्ञानसमुच्चयः अपि विहितः'' [तावत्] तब तक [कर्म] क्रियारूप परिणाम [ज्ञान] आत्मद्रव्यका शुद्धत्वरूप परिणमन, उनका [ समुच्चयः ] एक जीवमें एक ही काल अस्तित्वपना है। [ अपि विहितः] ऐसा भी है। परंतु एक विशेष 'काचित् क्षतिः न'' [काचित्] कोई भी [क्षति:] हानि [न] नहीं है। भावार्थ इस प्रकार है – एक जीवमें एक ही काल ज्ञान, क्रिया दोनों कैसे होते हैं ? समाधान ऐसा – विरुद्ध तो कुछ नहीं। कितने ही काल तक दोनों होते हैं ऐसा ही वस्तुका परिणाम है। परंतु विरोधी के समान दिखता है। परन्तु अपने अपने स्वरूप है, विरोध तो नहीं करता है। उतने काल तक जिस प्रकार है उस प्रकार कहते हैं-"यावत् ज्ञानस्य सा कर्मविरतिः सम्यक् पाकं न उपैति'' [ यावत्] जितने काल [ ज्ञानस्य ] आत्माका मिथ्यात्वरूप विभाव परिणाम मिटा है. आत्मद्रव्य शद्ध हआ है उसकी [ सा] पर्वोक्त [कर्म] क्रिया.उसका [विरति:] त्याग [ सम्यक पाकं न उपैति] बराबर परिपक्वताको नहीं पाता
क्रयाका मलसे विनाश नहीं हआ है। भावार्थ इस प्रकार है - जब तक अशद्ध परिणमन है तब तक जीवका विभाव परिणमनरूप है। उस विभाव परिणमनका अंतरंग निमित्त है. बहिरंग निमित्त है।
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