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कहान जैन शास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म-अधिकार
[ उपजाति ]
एकस्य वेद्यो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।। ४३-८८ ।
[ रोला ]
एक कहे ना वेद्य दूसरा कहे वेद्य है, किन्तु यह तो उभय नयों का पक्षपात है । पक्षपात से रहित तत्व वेदी जो जन हैं, उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ।।८८ ।।
अर्थ:- जीव वेद्य [ वेदने योग्य-ज्ञात होने योग्य ] है ऐसा एक नयका पक्ष है और जीव वेद्य नहीं है ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; इस प्रकार चित्स्वरूप जीव के सम्बन्धमें दो नयोंके दो पक्षपात है। जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात रहित है उसे निरन्तर चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूप ही है ।। ४३-८८ ।।
[ उपजाति ] एकस्य भातो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।। ४४-८९ ।।
[ रोला ]
एक कहे ना भात दूसरा कहे भात है, किन्तु यह तो उभय नयों का पक्षपात है । पक्षपात से रहित तत्व वेदी जो जन हैं, उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ।। ८९ ।।
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अर्थ:- जीव भात [ प्रकाशमान अर्थात् वर्तमान प्रत्यक्ष ] है ऐसा एक नयका पक्ष है और जीव भात नहीं है ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; इस प्रकार चित्स्वरूप जीव के सम्बन्धमें दो नयोंके दो पक्षपात है । जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात रहित है उसे निरन्तर चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूप ही है । । ४४ -८९ ।।
भावार्थ:- बद्ध अबद्ध, मूढ अमूढ, रागी अरागी, द्वेषी अद्वेषी, कर्ता अकर्ता, भोक्ता अभोक्ता, जीव अजीव, सूक्ष्म स्थूल, कारण अकारण, कार्य अकार्य, भाव अभाव, एक अनेक, सान्त अनन्त, नित्य अनित्य, वाच्य अवाच्य, नाना अनाना, चेत्य अचेत्य, दृश्य अदृश्य, वेद्य अवेद्य, भात अभात इत्यादि नयोका पक्षपात हैं। जो पुरूष नयोंके कथनानुसार यथायोग्य विवक्षापूर्वक तत्त्वकावस्तुस्वरूपका निर्णय करके नयोंके पक्षपातको छोड़ता है उसे चित्स्वरूप जीवका चित्स्वरूप अनुभव होता है।
जीवमें अनेक साधारण धर्म हैं परंतु चित्स्वभाव उसका प्रगट अनुभवगोचर असाधारण धर्म है; इसलिये उसे मुख्य करके यहाँ जीवको चित्स्वरूप कहा है ।। ४४-८९ ।।
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