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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन [१३ जेसिं अत्थि सहाओ गुणेहिं सह पज्जुएहिं विविहेहिं। ते होंति अत्थिकाया णिप्पिण्णं जेहिं तइल्लुक्कं ।।५।। येषामस्ति स्वभाव: गुणैः सह णर्ययैर्विविधैः। ते भवन्त्यस्तिकायाः निष्पन्नं यैस्त्रैलोक्यम।।५।। पुनश्च, यह पाँचों द्रव्य कायत्ववाले हैं कारण क्योंकि वे अणुमहान है। वे अणुमहान किसप्रकार हैं सो बतलाते हैं:--'अणुमहान्तः' की व्युत्पत्ति तीन प्रकारसे है: [१] अणुभिः महान्तः अणुमहान्तः अर्थात जो बहु प्रदेशों द्वारा [- दो से अधिक प्रदेशों द्वारा] बड़े हों वे अणुमहान हैं। इस व्युत्पत्तिके अनुसार जीव, धर्म और अधर्म असंख्यप्रदेशी होनेसे अणुमहान हैं; आकाश अनंतप्रदेशी होनेसे अणुमहान है; और त्रि-अणुक स्कंधसे लेकर अनन्ताणुक स्कंध तकके सर्व स्कन्ध बहुप्रदेशी होनेसे अणुमहान है। [२] अणुभ्याम् महान्तः अणुमहान्तः अर्थात जो दो प्रदेशों द्वारा बड़े हों वे अणुमहान हैं। इस व्युत्पत्तिके अनुसार द्वि-अणुक स्कंध अणुमहान हैं। [३] अणवश्च महान्तश्च अणुमहान्तः अर्थात् जो अणुरूप [-एक प्रदेशी] भी हों और महान [अनेक प्रदेशी] भी हों वे अणुमहान हैं। इस व्युत्पत्तिके अनुसार परमाणु अणुमहान है, क्योंकि व्यक्ति-अपेक्षासे वे एकप्रदेशी हैं और शक्ति-अपेक्षासे अनेकप्रदेशी भी [ उपचारसे ] हैं। इसप्रकार उपर्युक्त पाँचों द्रव्य अणुमहान होनेसे कायत्ववाले हैं ऐसा सिद्ध हुआ। कालाणुको अस्तित्व है किन्तु किसी प्रकार भी कायत्व नहीं है, इसलिये वह द्रव्य है किन्तु अस्तिकाय नहीं है।। ४।। गाथा ५ अन्वयार्थः- [ येषाम् ] जिन्हें [ विविधैः ] विविध [ गुणैः ] गुणों और [ पर्ययैः ] *पर्यायोंके [प्रवाहक्रमनके तथा विस्तारक्रमके अंशोंके ] [ सह] साथ [ स्वभावः ] अपनत्व [ अस्ति ] है [ते] वे [अस्तिकायाः भवन्ति ] अस्तिकाय है [यैः ] कि जिनसे [ त्रैलोक्यम् ] तीन लोक [ निष्पन्नम् ] निष्पन्न है। * पर्यायें = [ प्रवाहक्रमके तथा विस्तारक्रमके] निर्विभाग अंश। [ प्रवाहक्रमके अंश तो प्रत्येक द्रव्यके होते हैं, किन्तु विस्तारक्रमके अंश अस्तिकायके ही होते हैं।] विधविध गुणो ने पर्ययो सह जे अन्नयपणुंधरे ते अस्तिकायो जाणवा, त्रैलोक्यरचना जे वडे।५। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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