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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[ २३९ इह हि स्वभावप्रातिकूल्याभावहेतुकं सौख्यम्। आत्मनो हि दृशि-ज्ञप्ती स्वभावः। तयोर्विषयप्रतिबन्धः प्रातिकूल्यम्। मोक्षे खल्वात्मनः सर्वं विजानतः पश्यतश्च तदभावः। ततस्तद्धेतुकस्यानाकुलत्वलक्षणस्य परमार्थसुखस्य मोक्षेऽनुभूतिरचलिताऽस्ति। इत्येतद्भव्य एव भावतो विजानाति, ततः स एव मोक्षमार्गार्हः। नैतदभव्यः श्रद्धत्ते, ततः स मोक्षमार्गानह एवेति। अत: कतिपये एव संसारिणो मोक्षमार्गार्हा न सर्व एवेति।।१६३।।
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वास्तवमें सौख्यका कारण स्वभावकी प्रतिकूलताका अभाव है। आत्माका ‘स्वभाव' वास्तवमें दृशि-ज्ञप्ति [ दर्शन और ज्ञान] है। उन दोनोंको विषयप्रतिबन्ध होना सो ‘प्रतिकूलता' है। मोक्षमें वास्तवमें आत्मा सर्वको जानता और देखता होनेसे उसका अभाव होता है [अर्थात् मोक्षमें स्वभावकी प्रतिकूलताका अभाव होता है। इसलिये उसका अभाव जिसका कारण है ऐसे
अनाकुलतालक्षणवाले परमार्थ-सुखकी मोक्षमें अचलित अनुभूति होती है। -इस प्रकार भव्य जीव ही 'भावसे जानता है, इसलिये वही मोक्षमार्गके योग्य है; अभव्य जीव इस प्रकार श्रद्धा नहीं करता, इसलिये वह मोक्षमार्गके अयोग्य ही है।
इससे [ ऐसा कहा कि ] कतिपय ही संसारी मोक्षमार्गके योग्य हैं, सर्व नहीं।। १६३ ।।
१। प्रतिकूलता = विरुद्धता; विपरीतता; ऊलटापन।
२। विषयप्रतिबन्ध = विषयमें रुकावट अर्थात मर्यादितपना। [दर्शन और ज्ञानके विषयमें मर्यादितपना होना वह स्वभावकी प्रतिकूलता है।]
३। पारमार्थिक सुखका कारण स्वभावकी प्रतिकूलताका अभाव है।
४। पारमार्थिक सुखका लक्षण अथवा स्वरूप अनाकुलता है।
५। श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामें कहा है कि 'उस अनन्त सुखको भव्य जीव जानते है, उपादेयरूपसे श्रद्धते हैं
और अपने-अपने गुणस्थानानुसार अनुभव करते हैं।'
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