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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन [२२९ चरियं चरदि संग सो जो परदव्वप्पभावरहिदप्पा। दंसणणाणवियप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो।। १५९ ।। चरितं चरति स्वकं स यः परद्रव्यात्मभावरहितात्मा। दर्शनज्ञानविकल्पमविकल्पं चरत्यात्मनः।। १५९ ।। स्वभाव द्वारा नियतरूपसे अर्थात् अवस्थितरूपससे जानता-देखता है, वह जीव वास्तवमें स्वचारित्र आचरता है; क्योंकि वास्तवमें 'दृशिज्ञप्तिस्वरूप पुरुषमें [आत्मामें ] तन्मात्ररूपसे वर्तना सो स्वचारित्र भावार्थ:- जो जीव शुद्धोपयोगी वर्तता हुआ और जिसकी परिणति परकी ओर नहीं जाती ऐसा वर्तता हुआ, आत्माको स्वभावभूत ज्ञानदर्शनपरिणाम द्वारा स्थिरतापूर्वक जानता-देखता है, वह जीव स्वचारित्रका आचरण करनेवाला है; क्योंकि दृशिज्ञप्तिस्वरूप आत्मामें मात्र दृशिज्ञप्तिरूपसे परिणमित होकर रहना वह स्वचारित्र है।। १५८ ।। गाथा १५९ अन्वयार्थ:- [य:] जो [ परद्रव्यात्मभावरहितात्मा] परद्रव्यात्मक भावोंसे रहित स्वरूपवाला वर्तता हुआ, [ दर्शनज्ञानविकल्पम् ] [ निजस्वभावभूत] दर्शनज्ञानरूप भेदको [आत्मनः अविकल्पं] आत्मासे अभेरूप [ चरति ] आचरता है, [ सः ] वह [ स्वकं चरितं चरति ] स्वचारित्रको आचरता है। टीकाः- यह, शुद्ध स्वचारित्रप्रवृत्तिके मार्गका कथन है। १। दृशि= दर्शन क्रिया; सामान्य अवलोकन। ते छे स्वचरितप्रवृत्त , जे परद्रव्यथी विरहितपणे निज ज्ञानदर्शनभेदने जीवथी अभिन्न ज आचरे। १५९ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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