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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला ] नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन [ २२१ जो संवरेण जुत्तो णिज्जरमाणोध सव्वकम्माणि। ववगदवेदाउस्सो मुयदि भवं तेण सो मोक्खो।। १५३ ।। यः संवरेण युक्तो निर्जरन्नथ सर्वकर्माणि। व्यपगतवेद्यायुष्को मुञ्चति भवं तेन स मोक्षः।। १५३ ।। द्रव्यमोक्षस्वरूपाख्यानमेतत। अथ खलु भगवतः केवलिनो भावमोक्षे सति प्रसिद्धपरमसंवरस्योत्तरकर्मसन्ततौ निरुद्धायां परमनिर्जराकारणध्यानप्रसिद्धौ सत्यां पूर्वकर्मसंततौ कदाचित्स्वभावेनैव कदा-चित्समुद्धात विधानेनायुःकर्मसमभूतस्थित्यामायुःकर्मानुसारेणैव निर्जीर्यमाणायाम पुनर्भवाय तद्भवत्यागसमये वेदनीयायुर्नामगोत्ररूपाणां जीवेन सहात्यन्तविश्लेषः कर्मपुद्गलानां द्रव्यमोक्षः।। १५३ ।। ___-इति मोक्षपदार्थव्याख्यानं समाप्तम्। गाथा १५३ अन्वयार्थ:- [ यः संवरेण युक्त:] जो संवरसेयुक्त है ऐसा [ केवलज्ञान प्राप्त ] जीव [ निर्जरन् अथ सर्वकर्माणि] सर्व कर्मोकी निर्जरा करता हुआ [ व्यपगतवेद्यायुष्क:] वेदनीय और आयु रहित होकर [ भवं मञ्चति ] भवको छोड़ता है; [ तेन] इसलिये [ इस प्रकार सर्व कर्मपुद्गलोंका वियोग होनेके कारण ] [ सः मोक्ष:] वह मोक्ष है। टीका:- यह, द्रव्यमोक्षके स्वरूपका कथन है। वास्तवमें भगवान केवलीको, भावमोक्ष होने पर, परम संवर सिद्ध होनेके कारण उत्तर कर्मसंतति निरोधको प्राप्त होकर और परम निर्जराके कारणभूत ध्यान सिद्ध होनेके कारण पूर्व कर्मसंतति- कि जिसकी स्थिति कदाचित् स्वभावसे ही आयुकर्मके जितनी होती है और कदाचित् समुद्घातविधानसे आयुकर्मके जितनी होती है वह- आयुकर्मके अनुसार ही निर्जरित होती हुई, अपुनर्भवके लिये वह भव छूटनेके समय होनेवाला जो वेदनीय-आयु-नाम-गोत्ररूप कर्मपुद्गलोंका जीवके साथ अत्यन्त विश्लेष [ वियोग ] वह द्रव्यमोक्ष है।। १५३ ।। इस प्रकार मोक्षपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ। ----------------------- १। उत्तर कर्मसंतति=बादका कर्मप्रवाह; भावी कर्मपरम्परा। २। पूर्व पहलेकी। ३। केवलीभगवानको वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मकी स्थिति कभी स्वभावसे ही [ अर्थात् केवलीसमुदघातरूप निमित्त हुए बिना ही ] आयुकर्मके जितनी होती है और कभी वह तीन कर्मोंकी स्थिति आयुकर्मसे अधिक होने पर भी वह स्थिति घटकर आयुकर्म जितनी होनेमें केवलीसमुदघात निमित्त बनता है। [ केवलीभगवानको फिरसे भव हुए बिना ही उस भवका त्याग होता है; इसलिये उनके आत्मासे कर्मपुद्गलोंका सदाके लिए सर्वथा वियोग होता है।] संवरसहित ते जीव पूर्ण समस्त कर्मो निर्जरे ने आयुवेद्यविहीन थई भवने तजे; ते मोक्ष छ। १५३ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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