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कहानजैनशास्त्रमाला ]
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नवपदार्थपूर्वक—मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
यस्य न विद्यते रागो द्वेषो मोहो वा सर्वद्रव्येषु । नास्रवति शुभमशुभं समसुखदुःखस्य भिक्षोः ।। १४२ ।।
सामान्यसंवरस्वरूपाख्यानमेतत्।
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यस्य रागरूपो द्वेषरूपो मोहरूपो वा समग्रपरद्रव्येषु न हि विद्यते भाव: तस्य निर्विकारचैतन्यत्वात्समसुखदुःखस्य भिक्षोः शुभमशुभञ्च कर्म नास्रवति, किन्तु संक्रियत एव । तदत्र मोहरागद्वेषपरिणामनिरोधो भावसंवरः । तन्निमित्तः शुभाशुभकर्मपरिणामनिरोधो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यसंवर इति ।। १४२ ।।
गाथा १४२
अन्वयार्थ:-[ यस्य ] जिसे [ सर्वद्रव्येषु ] सर्व द्रव्योंके प्रति [ रागः ] राग, [ द्वेषः ] द्वेष [ वा ] या [मोहः] मोह [ न विद्यते ] नहीं है, [ समसुखदुःखस्य भिक्षोः ] उस समसुखदुःख भिक्षुको [ - सुखदुःखके प्रति समभाववाले मुनिको ] [ शुभम् अशुभम्] शुभ और अशुभ कर्म [ न आस्रवति ] आस्रवित नहीं होते ।
टीका:- यह, सामान्यरूपसे संवरके स्वरूपका कथन है।
जिसे समग्र परद्रव्योंके प्रति रागरूप, द्वेषरूप या मोहरूप भाव नहीं है, उस भिक्षुको जो कि निर्विकारचैतन्यपनेके कारण 'समसुखदुःख है उसे - शुभ और अशुभ कर्मका आस्रव नहीं होता, परन्तु संवर ही होता है। इसलिये यहाँ [ ऐसा समझना कि ] मोहरागद्वेषपरिणामका निरोध सो भावसंवर है, और वह [ मोहरागद्वेषरूप परिणामका निरोध ] जिसका निमित्त है ऐसा जो योगद्वारा प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके शुभाशुभकर्मपरिणामका [ शुभाशुभकर्मरूप परिणामका ] निरोध सो द्रव्यसंवर है ।। १४२ ।।
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१। समसुखदुःख = जिसे सुखदुःख समान है ऐसे: इष्टानिष्ट संयोगोमें जिसे हर्षशोकादि विषम परिणाम नहीं होते ऐसे। [ जिसे रागद्वेषमोह नहीं है, वह मुनि निर्विकारचैतन्यमय है अर्थात् उसका चैतन्य पर्यायमें भी विकाररहित है इसलिये समसुखदुःख है । ]