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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १८८] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द उक्तौ मूलपदार्थो। अथ संयोगपरिणामनिर्वृत्तेतरसप्तपदार्थानामुपोद्धातार्थं जीवपुद्गलकर्मचक्रमनुवर्ण्यते जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी।।१२८ ।। गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते। तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा।। १२९ ।। जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि। इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा।। १३०।। यः खलु संसारस्थो जीवस्ततस्तु भवति परिणामः। परिणामात्कर्म कर्मणो भवति गतिषु गतिः।। १२८ ।। गतिमधिगतस्य देहो देहादिन्द्रियाणि जायते। तैस्तु विषयग्रहणं ततो रागो वा द्वेषो वा।। १२९ ।। जायते जीवस्यैवं भाव: संसारचक्रवाले। इति जिनवरैर्भणितोऽनादिनिधन: सनिधनो वा।।१३०।। ___ दो मूलपदार्थ कहे गए अब [ उनके ] संयोगपरिणामसे निष्पन्न होनेवाले अन्य सात पदार्थों के उपोद्घातके हेतु जीवकर्म और पुद्गलकर्मके चक्रका वर्णन किया जाता है। संसारगत जे जीव छे परिणाम तेने थाय छे, परिणामथी कर्मो, करमथी गमन गतिमां थाय छे; १२८ । गतिप्राप्तने तन थाय, तनथी इंद्रियो वळी थाय छे, अनाथी विषय ग्रहाय, रागद्वेष तेथी थाय छे। १२९ । ओ रीत भाव अनादिनिधन अनादिसांत थया करे संसारचक्र विषे जीवोने-ओम जिनदेवो कहे। १३०। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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