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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन [ १५९ मुणिऊण एतदटुं तदणुगमणुज्जदो णिहदमोहो। पसमियरागद्दोसो हवदि हदपरापरो जीवो।। १०४ ।। ज्ञात्वैतदर्थं तदनुगमनोद्यतो निहतमोहः। प्रशमितरागद्वेषो भवति हतपरापरो जीवः ।। १०४ ।। दुःखविमोक्षकरणक्रमाख्यानमेतत्। एतस्य शास्त्रस्यार्थभूतं शुद्धचैतन्यस्वभाव मात्मानं कश्चिज्जीवस्तावज्जानीते। ततस्तमेवानुगंतुमुद्यमते। ततोऽस्य क्षीयते दृष्टिमोहः। ततः स्वरूपपरिचयादुन्मज्जति ज्ञानज्योतिः। ततो रागद्वेषौ प्रशाम्यतः। ततः उत्तरः पूर्वश्च बंधो विनश्यति। ततः पुनर्बंधहेतुत्वाभावात् स्वरूपस्थो नित्यं प्रतपतीति।।१०४।। इति समयव्याख्यायामंतींतषड्द्रव्यपञ्चास्तिकायवर्णनः प्रथमः श्रुतस्कंधः समाप्तः।।१।। ........ गाथा १०४ अन्वयार्थ:- [ जीवः ] जीव [ एतद् अर्थं ज्ञात्वा ] इस अर्थको जानकर [-इस शास्त्रके अर्थंभूत शुद्धात्माको जानकर], [ तदनुगमनोद्यतः] उसके अनुसरणका उद्यम करता हुआ [ निहतमोहः ] हतमोह होकर [-जिसे दर्शनमोहका क्षय हुआ हो ऐसा होकर ], [ प्रशमितरागद्वेष:] रागद्वेषको प्रशमित [ निवृत्त ] करके, [ हतपरापर: भवति] उत्तर और पूर्व बन्धका जिसे नाश हुआ है ऐसा होता है। टीका:- इस , दुःखसे विमुक्त होनेके क्रमका कथन है। प्रथम, कोई जीव इस शास्त्रके अर्थभूत शुद्धचैतन्यस्वभाववाले [ निज ] आत्माको जानता है; अत: [ फिर] उसीके अनुसरणका उद्यम करता है; अतः उसे दृष्टिमोहका क्षय होता है; अतः स्वरूपके परिचयके कारण ज्ञानज्योति प्रगट होती है; अतः रागद्वेष प्रशमित होते हैं - निवृत्त होते हैं; अतः उत्तर और पूर्व [-पीछेका और पहलेका ] बन्ध विनष्ट होता है; अतः पुनः बन्ध होनेके हेतुत्वका अभाव होनेसे स्वरूपस्थरूपसे सदैव तपता है--प्रतापवन्त वर्तता है [अर्थात् वह जीव सदैव स्वरूपस्थित रहकर परमानन्दज्ञानादिरूप परिणमित है ] ।। १०४ ।। आ अर्थ जाणी, अनुगमन-उद्यम करी, हणी मोहने, प्रशमावी रागद्वेष , जीव उत्तर-पूरव विरहित बने। १०४ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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