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११८]
पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
भगवा
प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधैः सर्वतो मुक्तः। ऊर्ध्व गच्छति शेषा विदिग्वाँ गतिं यांति।।७३।।
बद्धजीवस्य षणतयः कर्मनिमित्ताः। मुक्तस्याप्यूर्ध्वगतिरेका स्वाभाविकीत्यत्रोक्तम्।।७३।।
-इति जीवद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम्। अथ पुद्गलद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम्।
खंधा य खंधदेसा खंधपदेसा य होंति परमाणू। इदि ते चदुव्वियप्पा पुग्गलकाया मुणेयव्वा।।७४।।
स्कंधाश्च स्कंधदेशाः स्कंधप्रदेशाश्च भवन्ति परमाणवः। इति ते चतुर्विकल्पाः पुद्गलकाया ज्ञातव्याः ।।७४।।
गाथा ७३
अन्वयार्थ:- [प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधैः] प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धसे [ सर्वतः मुक्त:] सर्वतः मुक्त जीव [ ऊध्वं गच्छति] ऊर्ध्वगमन करता है; [ शेषाः ] शेष जीव [ भवान्तरमें जाते हुए ] [विदिग्वर्जा गतिं यांति] विदिशाएँ छोड़ कर गमन करते हैं।
टीका:- बद्ध जीवको कर्मनिमित्तक षविध गमन [ अर्थात् कर्म जिसमें निमित्तभूत हैं ऐसा छह दिशाओंमें गमन होता है; मुक्त जीवको भी स्वाभाविक ऐसा एक ऊर्ध्वगमन होता है। - ऐसा यहाँ कहा है।
भावार्थ:- समस्त रागादिविभाव रहित ऐसा जो शुद्धात्मानुभूतिलक्षण ध्यान उसके बल द्वारा चतुर्विध बन्धसे सर्वथा मुक्त हुआ जीव भी, स्वाभाविक अनन्त ज्ञानादि गुणोंसे युक्त वर्तता हुआ, एकसमयवर्ती अविग्रहगति द्वारा [ लोकाग्रपर्यंत ] स्वाभाविक ऊर्ध्वगमन करता है। शेष संसारी जीव मरणान्तमें विदिशाएँ छोड़कर पूर्वोक्त षट्-अपक्रमस्वरूप [ कर्मनिमित्तक] अनुश्रेणीगमन करते हैं।। ७३।।
इस प्रकार जीवद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान समाप्त हुआ।
अब पुद्गलद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान है।
जडरूप पुद्गलकाय केरा चार भेदो जाणवा; ते स्कंध तेनो देश, स्कधप्रदेश, परमाणु कह्या। ७४।
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