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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[८३
गुणा हि क्वचिदाश्रिताः। यत्राश्रितास्तव्यम्। तच्चेदन्यद्गुणेभ्यः। पुनरपि गुणाः क्वचिदाश्रिताः। यत्राश्रितास्तव्यम्। तदपि अन्यच्चेद्गुणेभ्यः। पुनरपि गुणाः क्वचिदाश्रिताः। यत्राश्रिताः तव्यम्। तदप्यन्यदेव गुणेभ्यः। एवं द्रव्यस्य गुणेभ्यो भेदे भवति द्रव्या नंत्यम्। द्रव्यं हि गुणानां समुदायः। गुणाश्चेदन्ये समुदायात्, को नाम समुदायः। एव गुणानां द्रव्याद्भेदे भवति द्रव्याभाव इति।। ४४ ।।
अविभत्तमणण्णत्तं दव्वगुणाणं विभत्तमण्णत्तं। णिच्छंति णिच्चयण्हू तव्विवरीदं हि वा तेसिं।। ४५।।
अविभक्तमनन्यत्वं द्रव्यगुणानां विभक्तमन्यत्वम्। नेच्छन्ति निश्चयज्ञास्तद्विपरीतं हि वा तेषाम्।। ४५।।
द्रव्यगुणानां स्वोचितानन्यत्वोक्तिरियम्।
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गुण वास्तवमें किसीके आश्रयसे होते हैं; [वे] जिसके आश्रित हों वह द्रव्य होता है। वह [-द्रव्य ] यदि गुणोंसे अन्य [-भिन्न ] हो तो-फिर भी, गुण किसीके आश्रित होंगे; [ वे] जिसके आश्रित हों वह द्रव्य होता है। वह यदि गुणोंसे अन्य हो तो- फिर भी गुण किसीके आश्रित होंगे; [ वे] जिसके आश्रित हों वह द्रव्य होता है। वह भी गुणोसे अन्य ही हो।-- इस प्रकार, यदि द्रव्यका गुणोंसे भिन्नत्व हो तो, द्रव्यकी अनन्तता हो।
वास्तवमें द्रव्य अर्थात् गुणोंका समुदाय। गुण यदि समुदायसे अन्य हो तो समुदाय कैसा ? [अर्थात् यदि गुणोंको समुदायसे भिन्न माना जाये तो समुदाय कहाँसे घटित होगा ? अर्थात् द्रव्य ही कहाँसे घटित होगा? ] इस प्रकार, यदि गुणोंका द्रव्यसे भिन्नत्व हो तो, द्रव्यका अभाव हो।। ४४।।
गाथा ४५
अन्वयार्थ:- [ द्रव्यगुणानाम् ] द्रव्य और गुणोंको [अविभक्तम् अनन्यत्वम् ] अविभक्तपनेरूप अनन्यपना है; [ निश्चयज्ञा: हि] निश्चयके ज्ञाता [ तेषाम् ] उन्हें [ विभक्तम् अन्यत्वम् ] विभक्तपनेरूप अन्यपना [वा ] या [तद्विपरीतं ] [ विभक्तपनेरूप] अनन्यपना [न इच्छन्ति ] नहीं मानते।
गुण-द्रव्यने अविभक्तरूप अनन्यता बुधमान्य छे; पण त्यां विभक्त अनन्यता वा अन्यता नहि मान्य छ। ४५।
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