SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 479
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ નાટક સમયસારના પદ ૪૬૫ जे समकिती जीव समचेती। तिनकी कथा कहीं तुमसेती।। जहां प्रमाद क्रिया नहि कोई। निरविकलप अनुभौ पद सोई।।४७।। परिग्रह त्याग जोग थिर तीनौं । करम बंध नहि होय नवीनौं।। जहां न राग दोष रस मोहै। प्रगट मोख मारग मुख सोहै।।४८।। पूरव बंध उदय नहि व्यापै। जहाँ न भेद पुन्न अरु पापै।। दख भाव गुन निरमल धारा। बोध विधान विविध विस्तारा ।।४९।। जिन्हकी सहज अवस्था ऐसी। तिन्हकै हिरदै दुबिधा कैसी।। जे मुनि छपक श्रेणि चढ़ि धाये। ते केवलि भगवान कहाये।।५०।। सभ्यष्टि वोन न. (होड२) इहि बिधि जे पूरन भये, अष्टकरम बन दाहि। तिन्हकी महिमा जो लखै, नमै बनारसि ताहि।।५१।। મોક્ષપ્રાપ્તિનો ક્રમ (છપ્પા છન્દ) भयौ सुद्ध अंकूर, गयौ मिथ्यात मूर नसि। । त्यक्त्वाऽशुद्धिविधायि तत्किल परद्रव्यं समग्रं स्वयं स्वद्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराधच्युतः । बन्धध्वंसमुपेत्य नित्यमुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छल च्चैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धौ भवन्मुच्यते ।।१२।।
SR No.008393
Book TitleKalashamrut 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages491
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy