SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसारप्राभृत शतक योगसारप्राभृत शतक (२२) मुनिराज के हाथ में प्राप्त अन्न दूसरे को देय नहीं - पिण्डः पाणि-गतोऽन्यस्मै दातुं योग्यो न युज्यते । दीयते चेन्न भोक्तव्यं भुङ्क्ते चेद् दोषभाग् यतिः ।।५२०।। दातारों से मुनिराज के हाथ में प्राप्त हुआ प्रासुक आहार दूसरों को देनेयोग्य नहीं है। यदि मुनिराज हस्तगत आहार दूसरे को देते हैं तो उन्हें उस समय पुनः आहार नहीं लेना चाहिए। यदि वे मुनिराज हस्तगत अन्न अन्य को देकर भी स्वयं उसी समय आहार ग्रहण करते हैं तो वे दोष के भागी होते हैं। (२३) तपस्वी मुनिराज को अकरणीय कार्य - संयमो हीयते येन येन लोको विराध्यते । ज्ञायते येन संक्लेशस्तन्न कृत्यं तपस्विभिः ।।४२३।। जिनके द्वारा मुनि जीवन में स्वीकृत संयम की हानि हों, एकेन्द्रियादिक जीवों को पीड़ा पहुँचती हों एवं स्वयं को तथा परजीवों को संक्लेश परिणाम उत्पन्न होते हों, उन कार्यों को तपस्वी मुनिराज नहीं करते - ऐसे कार्य मुनिराजों को नहीं करना चाहिए। (२४) आगम में प्रवृत्ति की प्रेरणा एकाग्रमनसः साधोः पदार्थेषु विनिश्चयः। यस्मादागमतस्तस्मात् तस्मिन्नाद्रियतांतराम् ।।४२४।। तीन लोक में स्थित सर्व पदार्थ संबंधी यथार्थ निर्णय/निश्चय एकाग्रचित्त के धारक साधु को जिनेन्द्रकथित आगम के अध्ययन से ही होता है। इसलिए साधु को विशेष आदर से आगम में प्रवृत्ति करना चाहिए अर्थात् आगम एवं परमागम का अध्ययन अत्यंत सूक्ष्मता से तथा सन्मानपूर्वक करना आवश्यक है। (२५) देशना के विभिन्नता का कारण - विचित्रा देशनास्तत्र भव्यचित्तानुरोधतः। कुर्वन्ति सूरयो वैद्या यथाव्याध्यनुरोधतः ।।४५०।। जिस समय जिस रोगी की जिसप्रकार की व्याधि/बीमारी होती है; उस समय चतुर वैद्य उस व्याधि तथा रोगी की प्रकृति आदि के अनुरूप योग्य औषधि की योजना करते हैं; उसीप्रकार मुक्तिमार्ग के संबंध में भी आचार्य महोदय भव्य जीवों के चित्तानुरोध से नाना प्रकार की देशनाएँ देते हैं। (२६) प्रमत्तादि गुणस्थानों की वंदना से चेतन मुनि वन्दित नहीं - प्रमत्तादिगुणस्थानवन्दना या विधीयते । न तया वन्दिता सन्ति मुनयश्चेतनात्मकाः ।।९८।। प्रमत्त-अप्रमत्तादि गुणस्थानों से लेकर अयोग केवली पर्यंत गुणस्थानों में विराजमान गुरु तथा परमगुरुओं की वंदना/स्तुति गुणस्थान द्वारा करने पर भी चेतनात्मक महामुनीश्वरों की वास्तविक वंदना/ स्तुति नहीं होती (केवल जड़ की ही स्तुति होती है।) (२७) जिलाने आदि की मान्यता मिथ्यात्वजनित - या जीवयामि जीव्येऽहं मार्येऽहं मारयाम्यहम् । निपीडये निपीड्येऽहं सा बुद्धिर्मोहकल्पिता ।।१६१।। मैं दूसरे जीवों को जिलाता हूँ, मुझे दूसरे जीव जिलाते हैं, मैं दूसरे जीवों को मारता हूँ, मुझे दूसरे जीव मारते हैं, मैं दूसरे जीवों को पीड़ा देता हूँ, मुझे दूसरे जीव पीड़ा देते हैं - इसतरह की जो मान्यता है, वह मिथ्यात्व से निर्मित है।
SR No.008392
Book TitleYogasara Prabhrut Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size101 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy