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(१०)
प्रवृत्ति के अभाव से पुरुषार्थ की विभिन्नता - अर्थकामाविधानेन तदभावः परं नृणाम् । धर्माविधानतोऽनर्थस्तदभावश्च जायते ।। ४२७ ।। अर्थ एवं कामपुरुषार्थ के साधनों में प्रवृत्ति न करने से किसी मनुष्य के जीवन में इन दोनों पुरुषार्थों का कदाचित् अभाव हो सकता हैं; परन्तु धर्मपुरुषार्थ के साधनों में प्रवृत्ति न करने से धर्मपुरुषार्थ का मात्र अभाव ही नहीं होता, उलट धर्मपुरुषार्थ के साधनों में अनर्थ अर्थात् विपरीतता घटित होती है। अतः धर्मपुरुषार्थ के साधनों में प्रवृत्ति आवश्यक है।
(११)
एक शास्त्र / तत्त्वज्ञान ही जीवों को मार्गदर्शक
योगसारप्राभूत शतक
तस्माद्धर्मार्थिभिः शाश्वच्छास्त्रे यत्नो विधीयते । मोहान्धकारिते लोके शास्त्रं लोक-प्रकाशकम् । । ४२८ ।। इसलिए जो भव्यात्मा वास्तविकरूप से यथार्थ धर्म के अभिलाषी अर्थात् इच्छुक हैं, वे सदा शास्त्रोपदेश की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हैं। - उन्हें प्रयत्न करना चाहिए। अति दुःखद मोहरूपी अंधकार से परिपूर्ण व्याप्त जगत में एक शास्त्र ही अनंत जीवों को यथार्थ उपाय दिखानेवाले दीपक के समान प्रकाशक / मार्गदर्शक है।
(१२)
शास्त्र की और विशेषता -
मायामयौषधं शास्त्रं शास्त्रं पुण्यनिबन्धनम् ।
चक्षुः सर्वगतं शास्त्रं शास्त्रं सर्वार्थसाधकम् ।। ४२९।। क्रोध-मान- माया-लोभकषायरूपी रोग की सच्ची सफल दवा शास्त्र है। सातिशय पुण्यपरिणाम एवं पुण्यकर्मबंध का सर्वोत्तम कारण
योगसारप्राभृत शतक
शास्त्र है। जीवादि छह द्रव्य, सप्त तत्त्व अथवा नौ पदार्थों को सम्यक् रूप से दिखानेवाला / स्पष्ट करनेवाला शास्त्र ही चक्षु है और इस भव तथा परभव के सर्व प्रयोजनों को सिद्ध करनेवाला भी शास्त्र ही है। (१३) उदाहरण सहित शास्त्र की उपयोगिता
यथोदकेन वस्त्रस्य मलिनस्य विशोधनम् । रागादि-दोष- दुष्टस्य शास्त्रेण मनसस्तथा ।।४३१ ।। जिसप्रकार मलिन वस्त्र जल से शुद्ध / पवित्र / निर्मल होता है, उसीप्रकार राग-द्वेषादि से दूषित साधक का मन शास्त्र के अध्ययनादि से निर्मल अर्थात् वीतरागरूप बन जाता है।
(१४)
जिनलिंग धारण करना चाहिए -
विमुच्य विविधारम्भं पारतन्त्र्यकरं गृहम् । मुक्तिं यियासता धार्यं जिनलिङ्गं पटीयसा ।। ३५७।। जो भव्य मनुष्य मुक्ति-प्राप्त करने का इच्छुक हों, अति निपुण एवं विवेकसंपन्न हों, उसे अनेक प्रकार के आरंभों से सहित और अत्यंत पराधीनता का कारण घर अर्थात् गृहस्थपने का त्याग कर यथाजात जिनलिंग अर्थात् दिगंबर मुनिदीक्षा का स्वीकार करना चाहिए।
(१५) दृष्टान्तपूर्वक आत्मविराधना के फल का कथन -
तुङ्गारोहणतः पातो यथा तृप्तिर्विषान्नतः । यथानर्थोऽवबोधादि- मलिनीकरणे तथा । । ३८३ । । जिसप्रकार पर्वत से नीचे गिरना तथा विषमिश्रित भोजन से तृप्ति का अनुभव करना- दोनों महा अनर्थकारी अर्थात् मरण का ही कारण है; उसीप्रकार सम्यग्ज्ञानादि को मलिन अर्थात् दूषित करना अत्यंत अनर्थकारी है अर्थात् दुःखरूप संसार में भटकने का कारण है।