________________
योगसारप्राभृत शतक
योगसारप्राभृत शतक
(७३) जिनेंद्रकथित व्यवहार चारित्र मोक्ष के लिये अनुकूल होने का कारण
चारित्रं चरतः साधोः कषायेन्द्रिय-निर्जयः।
स्वाध्यायोऽतस्ततो ध्यानंततो निर्वाणसंगमः ।।४५४। जिनेंद्र-कथित २८ मूलगुणरूप व्यवहार चारित्र का यथार्थ आचरण करने से क्रोधादि कषायों का एवं स्पर्शनेंद्रियादि इंद्रियों का जीतना होता है। इनको जीतने से शास्त्र का स्वाध्याय/निजात्मा का ज्ञान तथा अनुभव होता है। इस कारण आत्मध्यान होता है। आत्म-ध्यान से मुक्ति की प्राप्ति होती है।
ध्यान का लक्षण -
ध्यानं विनिर्मलज्ञानं पुंसां संपद्यते स्थिरम् ।
हेमक्षीणमलं किं न कल्याणत्वं प्रपद्यते ।।४७०।। पुरुषों का अर्थात् जीवों का निर्मल/सम्यग्ज्ञान जब स्थिर होता है, तब उस ज्ञान को ही ध्यान कहते हैं। यह ठीक ही है; क्योंकि किट्टकालिमादिरूप मल से रहित हुआ सुवर्ण क्या कल्याणपने को प्राप्त नहीं होता? अर्थात् शुद्ध सुवर्ण कल्याणपने को प्राप्त होता ही है। इस दुनियाँ में निर्मल सुवर्ण को कल्याण नाम से जाना भी जाता है।
अजीव द्रव्यों की स्वतंत्रता -
अवकाशं प्रयच्छन्तः प्रविशन्तः परस्परम् ।
मिलन्तश्च न मुञ्चन्ति स्व-स्वभावं कदाचन ।।६१।। धर्म, अधर्म, आकाश, काल एवं पुद्गल - ये पाँचों अजीव द्रव्य एक-दूसरे को जगह/अवगाह देते हुए और एक-दूसरे में प्रवेश करते हुए तथा एक दूसरे में मिलते हुए भी अपने-अपने स्वभाव को कभी नहीं छोड़ते।
(७७) द्रव्य का उत्पाद-व्यय, पर्याय अपेक्षा से -
नश्यत्युत्पद्यते भाव: पर्यायापेक्षयाखिलः ।
नश्यत्युत्पद्यते कश्चिन्न द्रव्यापेक्षया पुनः ।।६६।। द्रव्य समूह को पर्याय की अपेक्षा से देखा जाय तो द्रव्य नष्ट होता है और द्रव्य ही उत्पन्न भी होता है; परन्तु अनादि-अनंत अर्थात् अविनाशी द्रव्य की अपेक्षा से देखा जाय तो कोई भी द्रव्य न नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है।
(७८) द्रव्य के साथ गुण-पर्यायों का अविनाभावी संबंध -
किंचित् संभवति द्रव्यं न विना गुण-पर्ययैः ।
संभवन्ति विना द्रव्यं न गुणा न च पर्ययाः ।।६७।। कोई भी द्रव्य, गुण-पर्यायों के बिना नहीं हो सकता और कोई भी गुण अथवा कोई भी पर्याय द्रव्य के बिना नहीं हो सकते।
तत्त्वचिंतकों का अलौकिक ध्येय तत्त्व -
विकारा निर्विकारत्वं यत्र गच्छन्ति चिन्तिते।
तत् तत्त्वं तत्त्वतश्चिन्त्यं चिन्तान्तर-निराशिभिः ।।४८८।। जिस (निज भगवान आत्मा) का चिन्तन/ध्यान करने पर विकार निर्विकारता को प्राप्त हो जाते हैं (वीतरागमय धर्म प्रगट हो जाता है), उस (चिन्तनयोग्य ध्येय) तत्त्व का अन्य चिन्ताओं के निराकरण में समर्थ (स्थिर चित्त) पुरुषों को वास्तविक चिन्तन करना चाहिए।
कोई किसी का कभी कोई कार्य करता ही नहीं -
पदार्थानां निमग्नानां स्वरूपं परमार्थतः। करोति कोऽपिकस्यापिन किंचन कदाचन ।।७७।।